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अपूर्वकरण गुणस्थान कछू मोह उपशम जहं करं, अथवा किचित क्षय कर घरै। हौहि भये कबहूं न प्रनाम, अपूर्वकरण जानौं गुणधाम ।।२६३।।
अतिवृत्तिकरण गुणस्थान भाबतनी थिरता अति होय, चंचलता नहि दीस कोय । जहां न उलटै प्रधिको भाव, सो अनिवृत्तिकरण गुण थाव ।।२६४।।
सूक्ष्मसांपराय गुणस्थान सूक्ष्म लोभ ददा जहं होय, शिव अभिलाषा छोड़ी सोय । ऐसे जहाँ होहिं परिणाम, सूक्ष्म साँपरायके धाम ॥२६॥
उपशांतमोह गुणस्थान जथाख्यात चारित्र उदोत, मोह वहां लौं उपशम होत । तहं ते गिर कर गुण हान, यह उपशांतमोह गुणस्थान ॥२६६।।
क्षीणमोह गुणस्थान जथाख्यात चारितके जोर, ताकर मोह क्षीण घनघोर। केवल ऋद्धि निकट जब प्राव, क्षीणमोह गणस्थान कहावं ॥२६७।।
सयोगकेवली गुणस्थान जहां घातियनकी भई हान, दोष अठारह रहित वखान । अनंत चतुष्टय प्रगट सही, संजोगी गुणथानक कही ॥२६॥
प्रयोगकेवलो गुणस्थान पुरन जथाख्यात जह होय, कर्म अघाती दीन खोय । पंच लघुक्षर तने प्रमाण, प्रगट अजोगी यह गुणथाण ॥२६६।।
जीवके भेद
दोहा
बहिरातम प्रथमहि कह्यौ, अन्तर पात्म दुतीय । परमातम तीजो सुनौ, त्रिविध भेद सब जीव ॥२७०॥
वहिरात्माका लक्षण
चौपाई तत्व प्रतत्व जान सब एक, गुण निर्गुण को नाहि विवेक । सुगरू कुगुरूको भेद न कर धर्म पाप मन इक सम घरै ।।२७१।। शुभ अरु अशुभ बराबर लेख, शास्त्र प्रशास्त्र एक ही पेख । देव अदेव विचार नाहि, हेयाहेय न तन मन मांहि ।।२७२॥ हालाहल पीवत सुख वहै, महा मूढ़ मिथ्यातम गहै । जड़ चेतन जान सम रूप, सो वहिरातम दुर्गति कूप ।।२७३।।
अन्तरात्माका लक्षण
जो जित सत्र विवेकी होय, सकल विचार वेदता सोय । तत्व अतत्व शुभाशुभ जान, देव अदेव भेद कर माने ।।२७४।। सत्यासत्य पुण्य अरु पाप, इनको भिन्न लख परताप । मुकति कुगति मारग दो पक्ष, जाने, सो अंतरातम दक्ष २७५।।
बीचमें जो शेष सात शुभ गुण स्थान हैं उनमें मोक्षमार्ग पर अवस्थित मध्यम अन्तरात्मा है। अन्तिम तेरह एवं चौदहवें गणस्थानमें तीनों जगत के जीवोंके द्वारा परम सेव्य परमात्मा प्रयोगी एवं सयोगी रूपसे वर्तमान हैं। - जो कि भूत भविष्यत् एवं वर्तमान तीनों काल में द्रव्यभाव प्राणोंसे जीवन धारण करनेकी शक्ति रखता है वही यथार्थ जीव है। पांच इन्द्रिय; वचन काय; आय एवं उच्छवास निःश्वास ये संज्ञी जीवोंके दस प्राण हैं । प्रसंगी जीवोंके मनको छोड़ कर शेप नो प्राण होते हैं। ऐसा बुद्धिमानोंने कहा है। ची इन्द्रिय जीवोंके पाठ ही प्राण कहे गये हैं, उनमें एक और कर्णन्द्रिय