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योगमार्गणा चौपाई
अब सुन पंद्रह जोग जु सोय, मन वच काय प्रिविधि संजोय । मन के चार जोग पहिचान, सत्य असत्य दोय परवान ।। १६८ ।। उभय जोग तीसरी कया, अनुभय मन चौथौ निरवह यो । वचन जोग चारौं उनमान, सत्य असत्य भेद दो जान ॥१६६ ।। उभय वचन अनुभय बच होइ, तिनके भेद सुनो अवलोइ । सत्य कहावै साची बात, तहां असत्य झूठ विख्यात ॥१७० ।। कछू झूठ कछु सांची कहै, उभय जोगको इहि बिधि लहै । जहां न सांच भूठ परसंग, अनुभव जोग कहावं अंग ॥१७१॥ प्रथर्माह औदारिक है काय, औदारिक मिश्रित दो थाय । वित्रिय काय जोग त्रय जान, बिक्रिय मिथ काय जोगान ।।१७२ ।। पाहरक काय जोग पंचमा, अहरकमिथ काय छट्टमा । कार्मण काय जोग पे सात, सब पन्द्रह जानौ उत्तपात ॥१७३ ।। जोलो जोग गमन लह जीव, कर न सके सरदहन सूकीव । जब त्यागौ सत्ता इन तनी, होय अयोगी केवल धनी ॥१७४ ।।
वेदमार्गणा अस्त्री पुरुष नपुसक जान, एही तीन भेद पहिचान । इन्हें धर जिय नर्तत फिरे, अपनी सुधि नहि कब करे ।।१७५ ।।
कषायमार्गणा चार चौकड़ी सोरह जेह, हास्या दिककी नव गन लेह । ये सब मिलि पच्चीस कषाय, इनको धर जिय जग भटकाव ॥१७६
ज्ञानमार्गणा ज्ञान आठ-मति श्रुत दो जान, (अ) वधि मन परजय केवल ज्ञान । तीन कुज्ञान मिले सब आठ, ज्ञानमार्गणा इहि विधि ठाठ ।। १७७
संयममार्गणा संयम और असंयम जाम, छेदोपस्थापन परवान । यथाण्यात सामायिक और, सूक्षम सांपराय गुण ठौर ॥१७८॥ अर कहिए परिहार विशुद्ध, ये ही सातों संयम शद्ध । अब इनको कछु सुनिये भेव, भाग्यौ है श्री जिन देव ।।१७६।। पंच महाबत समिति लहाय पंचेन्द्रिय जीते जु दवाय । मन वच काय दण्ड कर त्याग ताको भेद सुनौ बड़ भाग ।।१८०|| प्रथम दण्ड मन को जानिये, विविध रूप ताके मानिये । रागद्वेष मोह ये सीन, तिनके भेद सुनो परवीन ॥१८१।। प्रथम हास्य रस माया लोभ, रागतने ये जानो क्षोभ । क्रोध मान भय आरति तेह, शोक ग्लानि द्वेष हैं येह ॥१८२।। तीन मिथ्यात बेद पून तीन, मोह तनी रचना परवीन । इन जोतं उपज बैराग, तह कन दंड तनी है त्याग ।।१८३।। वचन दंड के सात हि भेद, अनत, अरु उपघात निवेद । पिशुन परोप गनौ अभिसन्न, पर वार्तिक पर होइ हसन्न ।।१८४।। झूठ कथन तहं अनृत विख्यात, मारण कहै वहै उपघात । कपट प्रपंच पिशुनता जान, वचन कठोर परोप बखान ।।१८५॥ जसं अपनी प्रभुता कहवाब, सो अभिसन्न नाम, ठहराव । बात कहत सबको दुख होय, सी परवात कहै मुनि लोय ॥१८६॥ दया रहित जो कहिए बात, यह हसन्नता को उतपात । इनसे रहित गहै तप जब वचन दंड त्यागी मुनि तबै ।।१८७॥ काय दण्ड अब सात प्रकार, प्रान बद्ध चोरजति असार । मथुन परिग्रह प्रारम्भेव, ताडून उग्न विषय दुख देव ॥१८८।।
संसर्ग प्रकल्याणकर होता है।
अन्तरात्मा वे हैं जो कि बहिरात्माके बिपरीत हैं। इनकी बुद्धि विवेकशील होती हैं। ये जिन सिद्धान्तके धर्म-सूत्रों को जानते हैं और तत्व-अतत्व, शुभ-अशुभ, देव-कुदेव, सत्य-असत्य मत, धर्म-अधर्म तथा मिथ्यामार्ग एवं मोक्ष मार्गके यथार्थ भेदोंको अच्छी तरह जानते हैं । जिनमें ऐसी भेद ज्ञानात्मक शक्ति है उसी को जिनेन्द्र महावीर प्रमू ने अन्तरात्मा कहा है। जो कि अपने
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