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वोधी गति को परस प्राय, निज थान ही। समुद्घात यह कहो, तुरिय तस जान ही ॥४६॥
तेजस समुद्घात काहू मुनिको प्राइ, क्रोध उपजो घनौं । प्रगटै बायें कन्ध पुतर तंजस तनो ।। ज्वाल ताहि विकराल, सिंदूर प्रकार है। बारह जोजन दीर्घ, नव जु विस्तार है ।।४।। हारावति सम प्रलय, भसम मुनि जुत करें। तजस अशुभ प्रवान, कषायन बिस्तरै ।। शुभ तैजस सुन भेद दया मुनिबर बढे । दुभिक्षादिक भेंट, शुभहि प्राकृति चढ़े ।।४।। कंध दाहिने निकस, पूर्व जब पोतरा । रोग शोक दुख सकल, निवार सुखोत्तरा ।। फिर निज थानक अाय, अंग मुनि सुख करै । समुद्घात दुय भेद, पंचमौ अनुसरै ।।४६।।
आहारक समुद्घात करत साधु श्रुत अर्थ, बिचार , साबही। तह संशय प्रसिहाय, पित चित बाबही॥ निकट भूमि के माहि, केवली है नहीं। कीजै कोन उपाय, भर्म नाशं कहीं ॥५०॥ सब मुनि मस्तक प्रगट प्रहारक तनु धरौ। एक हाथ उनमान, जिनेश्वर उच्चरी ।। फटिक वरन मन हरन, जाय जहं के वली। सब संदेश मिटाय, थान प्रावे वली ॥५१।।
केवलि समुद्धात तेरम गुनके अन्त, केवल नाहको। रहयौ पूर्व संसार भ्रमण, कछु ताहिको ।। बाहिर निकस प्रदेश अलख सो जानिये । दड कपाट समान त्रिलोक प्रमानिये ॥५२॥
दोहा प्रथम समय में दंड कर दूज करै कपाट । तीज प्रतर चतुर्थ भरपूर लोक संपाट || ५३।। पंचम समय विवर्त कर, षष्टमं थान वतेह । कपाट सप्तमै अष्टमै, दंड प्रथम तन जेह ।।५।।
समुद्घात में दिशाओं का नियम मारणांत आहार पुन, एक दिशा गमनेह । समुद्घात पांचौ अवर, दशहू दिश गत तेह ।।५।।
चौवीस स्थान भ्रमण वर्णन भ्रमत जीव संसार में, चौबिस थानक मांहि । तै बरनौं संक्षेप कर, श्री जिन आगम पाहि ।।५६।। गति इन्द्रिय अरु काय पुनि, जोगहि बेद कषाय । ज्ञान सु संजम, दरशनौ, लेश्या भवि दुविधाय ॥५७ ॥
नोपदी. ते इन्द्री, चौ इन्द्री, पंचेन्द्री इस प्रकार जिनागममें जीवों के नौ भेदों को कहा गया है । पृथ्वी, जल, अग्नि, वाय परेक वनस्पति, साधारण वनस्पति दो इन्द्री, तेइन्द्रिय, चौइन्द्री, पञ्चेन्द्री इस प्रकार जोवोंक दस भेद कहे गये हैं। स्थावरके मधम. बादर इत्यादि दस भेदोंमें ग्यारहवाँ वस मिला देने पर जीवोंके ग्यारह भेद हो जाते हैं ऐसा ही बुद्धिमानोंको जानना चाहिये । दस स्थावरमें विकलेन्द्री एवं पचेन्द्री मिला देने से जीवों के बारह भेद हैं। पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये पांच स्थावर एव चादरके भेदसे दस प्रकारके होते हैं। विकलेन्द्री, असंज्ञी पचेन्द्री पंगेन्द्री संज्ञी और पंचन्द्रिके साथ जीबोंके तेरह भेद हो जाते हैं। सुक्ष्म बादर भेद दो प्रकारके इन्द्री, दो इन्द्री, से इन्द्री, चौ इन्द्री और समनस्क (मन सहित) एवं अमनस्क मन रहित) भेद से दो प्रकार का पंचेन्द्री इस तरह सात भेद होते हैं। ये सातों अपर्याप्त एवं पर्याप्त के भेद से चौदह प्रकारके हो जाते हैं । अर्थात् जीव समान यानी जीवोका भेद चौदह प्रकार का हया।
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