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दोहा निश्चय करके जीव यह, धरै शुद्ध जब भाव । चेतन पद प्रगटै जब, मुक्त होय शिव ठाव ।।३५||
अथ भोक्तृत्व भेद निरूपण
चौपाई प्राणी सुख दुख या जग माहि, भुगतं पाप कर्म फल पाहि । सो व्यौहार कयौ परवान, निश्चय सुख भुगतै शिव थान ॥३६॥
देह प्रमाण-निरूपण
बोहा देहमात्र व्यौहारनय, कह्यौ वीर जिनराय। निश्चय नय की दृष्टि सौं, लोकप्रदेशी थाय ।।३७॥
हे बुद्धिमान गौतम, तु अपनी अभीष्ट पूर्ति कर देने वाले प्रश्नोत्तरोंको स्थिर-चित होकर और अन्यान्य उपस्थित जीवों के साथ सुन । इस उपदेशसे सभीका कल्याण होगा । प्रभने जब अपने मुखारविन्दसे दिव्य उपदेश की मधुर ध्वनि निकाली
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------ ४. मोहनीय-मोह के कारण ही राग-द्वेष होता है जिससे क्रोध, मान, माया, लोभादि कषायों की उत्पत्ति होती है, जिसके वश हिसा भठ, चोरी, परिग्रह और वुदीलसा पाच महापाप होते हैं, इसलिये मोहनीय कर्म सन कर्मों का राजा और महादु:खदायक है। अधिक मोह वाला मरकर मक्खी होता है, ममारी पदार्थों से जितना मोह कम किया जाये उतना ही मोहनीय कर्म हीले पड़ता है और उतना ही अधिक सम्लोष, सुख और शान्ति की प्राप्ति होती है ।
५. आयकर्म-जिसके कारण जीव देव, मनुप्य, पश, नरक चारों गतियों में से किसी एक के शरीर में किसी खास समय तक रुका रहता है। जो सच्चे धर्मात्मा, परोपकारी और महासन्तोषी होते हैं, वह देव आसु प्राप्त करते हैं। जो किसी को हानि नहीं पहुंचाते, मन्द कषाय होते हैं, हिसा नहीं करते वह मनुष्य होते हैं। जो विश्वासघाती और धोखेबाज होते है पशुओं को अधिक बोझ लादते हैं, उनको पेट भर समय पर खाना-पीना नहीं देते, दूसरों की निन्दा और अपनी प्रशंसा करते हैं वह पश होते हैं। जो महाक्रोधी, महालोभी, कुशल होते हैं झूठ बोलते और बुलवाते हैं, चोरी और हिमा में आनन्द मानते हैं, हर समय अपना भला और दूसरों का बुरा चाहते हैं, वह नरक आयु का यन्ध करते हैं।
६. मामकर्म--जिसके कारण प्रच्छा या बुरा शरीर प्राप्त होता है। जो निग्रंथ मुनियों और त्यागियों को विनय पूर्वक शुद्ध आहर कराते हैं, विद्या, औषधि तथा अभयदान देते हैं, मुनि-धर्म का पालन करते हैं, उनको शुभ नाम कर्म का बन्ध होकर चक्रवर्ती, कामदेव, इन्द्र आदि का महा सुन्दर और मजबूत शरीर प्राप्त होता है । जो श्रावक-धर्म पालते हैं दे निरोग और प्रबल शरीर के धारी होते हैं । जो निग्न थ मुनियों और त्यागियों की निन्दा करते हैं, ये कोही होते हैं, जो दूसरों की विभूति देखकर जलते हैं कषायों और हिंसा में आनन्द मानते हैं वे बदसरत, अंगहीन, कमजोर और रोगी शरीर वाले होते हैं।
७. गोत्रकर्म-जो अपने रूप, धन, ज्ञान, बल, तप, जाति, कुल या अधिकार का मान करते हैं, धर्मात्मानों का मखोल उड़ाते हैं, वे नीच गोत्र पाते हैं और जो सन्तोषी शीलवान होते हैं अहंतदेव, निग्रंन्य मुनि तथा त्यागियों और उनके वचनों का यादर करते हैं दे देव तथा क्षत्री, ब्राह्मण, वैश्य आदि उच्च गोत्र में जन्मते हैं।
____८. अन्तराय --जो दूसरों के लाभ को देखकर जलते हैं, दान देने में रुकावट डालते हैं उनको अन्तराय कर्म की उत्पत्ति होती है । जिस के कारण वह महा दरिद्री और भाग्यहीन होते हैं। जो दूसरों को लाभ पहुंचाते हैं, दान करते करते हैं, उनका अन्तरायकर्म ढीला पड़कर उनको मन-वांछित सुख-सम्पत्ति की प्राप्ति बिना इच्छा के आपसे आप हो जाती है।
पांच समिति, पाँच महाबत, दश लाक्षण धर्म, तीन गुप्ति, बारह मावना और २२ परीषह के पालने से कर्मों के प्रास्रव का संबर होता है और बारह प्रकार के तप तपने से पहले किये हुए चारों घातिया कर्मों का अपने पुरुषार्थ से, निर्जरा (नाश) करने में आत्मा के कर्मों द्वारा छुपे हुए स्वाभाविक गुण प्रकट होकर यही संसारी जीव-आत्मा अनन्तानन्त ज्ञान, दर्शन, बले और सुख-शान्ति का धारी परमात्मा हो जाता
और बाकी चारों अघातिया कर्मों से भी मुक्त होने पर मोक्ष (SALVATION) प्राप्त करके अविनाशी मुख-शान्ति के पालने वाला सिद्ध .. भगवान् हो जाता है।
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