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दोहा
इत्यादिक तुम नाम शुभ, कहे मनोज्ञ बखान । सो वांछा नामावली, दोर्ज मुहि गुण खान ।।७।।
चौपाई भो प्रभु । तुम प्रतिबिम्ब सु थान; कृत्रिम और अकृत्रिम जान । हेम रतनमय त्रय जग माहि, नमौं चरण अघ मुल नशाहि ।।७।। तुम प्रतिमा भो जिनवर देव, जे पूजै थुतिकार नित सेव । भक्ति सहित प्रनमैं शिरनाय, ते त्रिलोक अधिपति पद पाय ।।७।। तुम प्रतच्छ पाय भो देव, पूजा थुति नुति कर नित सेव । निश दिन जो प्रनमैं तुम पाय, लहि असंख्य फल कही न जाय ।।७।। तुम तन निरुपम राजत सार, तीन जगत जन प्रिय करतार । कोटि भानुते द्युति अति होय, व्यापित भई दशों दिश सोय 11७६।। हे प्रभु ! दीपति समित सरूप, विक्रिय रहित चतुर्मुख रूप । अन्त रहित गुण निरमल शोध, वाणी खिरै सभा संबोध ।।८०॥ तुमरै चरण पर जिहि थान, सोई सफल भूमि परवान । जगमें तोरथ उत्तम सोय, वंदनीक मुनि सुर नर होय ॥८१।। गर्भजन्म दीक्षा कल्यान, जहां होय प्रभू निर्मल थान । पूजनोक सो क्षेत्र पवित्र, तोरथ जगत परममें मित्र ||२|| केवल ज्ञान अनन्त प्रकाश, विश्व द्वीप उद्योतहि जास । लोकालोक जु व्यापित लही, अरु भन्यनि प्रति मुखत कहौं ।।३।। तुम प्रभु तीन जगत के स्वामि, सर्व तत्व वेदित शिवगामि । विश्व व्याप्त जगनायक देव, प्रनमै पद मुर असुर ज सेव ॥४॥
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के प्रवर्तक है, अतएव हम अापको पुनः पुनः नमस्कार करते हैं। हे नाथ, इस प्रकार श्रद्धा भक्ति पूर्वक को गयो पापको स्तुति और नमस्कार से पाप हम पर प्रसन्न हों और प्रापको समस्त गुण-राशि हमें प्राप्त हों और कर्म शत्रुओं का नाश करें साथ हो समाधिमरण रूपी श्रेष्ठ मृत्युको भी प्रदान कर।
इस प्रकार देवोंके सहित इन्द्र श्रीमहावीर प्रभुको स्तुति, नमस्कार एवं भक्ति पूर्वक इष्ट प्रार्थना करके धर्मोपदेश सनने के लिए अपने-अपने प्रकोष्ठ में बैठ गये तथा अन्य भव्य एवं देवियों भो कल्याण कामना से हित प्राप्ति के लिय जिनेन्द्र प्रभ के सामने बैठ गयीं।
जब इन्द्र ने देखा कि बारह प्रकार के जीव समूह उत्तम धर्म सुनने को इच्छासे अपने-अपने प्रकोष्ठ में बैठे हए हैं और तीन प्रहरका समय व्यतीत हो जाने पर भी ग्रहंतको ध्वनि नहीं निकल रही है तब उसने विचार किया कि किस कारण ऐसा हो रहा है? ध्वनि में कौन-सो बाधा उपस्थित हो गयी है ? जान पड़ता है अवधि ज्ञान के प्रभाव से कोई भी मनोश्वर गणधर पद के उपयक्त नहीं है। ऐसा सोचकर इन्द्र पुनः सोचने लगा कि कैसी आश्चर्य की बात है कि इन बहसंख्यक मनोगों में कोर्ट या सयोग्य मनीन्द्र नहीं है, जो प्रभुके मुखसे वहिर्भुत रहस्य पदार्थों को सुनकर गणधर हो जाय और सम्पूर्ण द्वादशांग शास्त्र को रचनामें कृतकार्य हो सके।
इसके बाद इन्द्र को ज्ञात हुमा कि इसो नगर में गीतम-कुल-भूषण गीतम नामका श्रेष्ठ ब्राहाण है और वह गणधर होने के योग्य है। ऐसा विदित हो जाने पर वह सीधर्मेन्द्र परम प्रसन्न हया और उस द्विज श्रेष्ठ गौतमको रामा-मण्डप में लाने के लिये कोई उत्तम उपाय सोचने लगा। अन्त में इन्द्र ने निश्चित किया कि वह गौतम विद्याभिमानी है यदि उसके पास ब्रह्मापुरमें जाकर गढ अर्थ वाले कुछ काव्य पूछे जाय तो जब उन गढ़ श्लोकों का अर्थ नहीं मालम होगा तब शास्त्रार्थ को इच्छासे बह स्वयं ही यहाँ आ जायगा । ऐसा सोचकर बुद्धिमान इन्द्र बृद्ध ब्राह्मण बन गया और हाथ में लाठी देकना हा गोतम ब्राहाण के पास जा पहुंचा और गौतमसे कहा कि ब्राह्मण, तुम तो बहुत विद्वान् जान पड़ते हो, तुम्हारे सदश दसरा कोई विद्वान यहां नहीं दिखायी पड़ता। मेरे गुरु श्री महावीर इस समय मौन धारण किये हुए हैं, इसलिए एक काव्यके अर्थको पूछने के लिए मैं तुम्हारे पास विद्वान् जानकर आया हूं, विचार कर कहो। इस काव्य के वास्तविक अर्थको समझने में मेरा जीविकाका निर्वाह होगा, कितने ही भव्य-पुरुषोंका उपकार होगा और पार भी यश के भाजन होंगे। छद्मवेषी इन्द्र के वचन को सनकर विद्वान . ब्राह्मण गौतमने कहा कि ऐ वृद्ध, यदि मैं तेरे काव्यका उचित अथं शीघ्र हो कर दें, तो इसकी प्रतिक्रिया में क्या करेगा ? म . बातके उत्तरमें इन्द्र ने कहा यदि मेरे काव्यको समुचित व्याख्या तुम कर दोगे तो मैं विधि पूर्वक तुम्हारा शिष्यत्व (चेलापन)
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