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ages ज्ञान भंडार सब जग जाने तिन गुण मार हार जीत शोभा और मान भंग नहि हु है मोर ॥४१॥
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इह प्रकार मन- मांहि विचार, विप्रहि प्रति वच ये उच्चार। या कहि अपनी सभा महार, शिष्य पंच सहित सिपार गौमत के भ्राता है और बावुभूति अग्निभूति ठौर क्रम कम पथ चालें गुणवंत, तह मनमें विकलप जु करंत यह चिंता कर कंप्यो गात समाधान फिर कौनौ भ्रात तौलों समोशरण यह रंग दीठपी मानयंम उसंग भये भाव शुभ सुखको धाम प्रति कोमल मार्दव परनाम
तुम सो काव्य अर्थ नहि कहौं, तुमरे गुरु प्रति उत्तर नहीं ||५०|| चारों भ्रांत संग मद गोर, पाले सम्मति प्रभु की ओर ।। ५१ ।। पंच पंचसे शिहि भाव तीनों द्विज कोविद अधिकाय ।। ५२ ।। द्विज आगे हम अर्थ न लहै, सो गुरु निकट सु किम हम कहैं ।।५३ || वर्धमान के पद जोय, हानि वृद्धि हमको नहि होय || ५४||
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गलित भई चिन्ता जसगार मान हार भयो सुरार ॥ ११॥ कीनों तहां प्रवेशज पाय दिव्य विभूति देस द्विजराव ।। ५६ ।।
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दोहा
श्री शिवपते पहा न पापति होय गौतम मिथ्या मत बो थियो सुधारस सोय ।। ५७|| । बम्यो, द्विज गौतम प्रभु गुण गरुन, सिंहासन पर देखि चार ज्ञान झलकं तुरत क्यों दर्पण मुख देखि ॥५८॥ तीन प्रदक्षिण दे प्रभुहि निज कर मस्तक धार 1 चरण कमलको प्रणमि कर, आष्ट अंग भूवि भार ||५६|| भक्तिसहित प्रस्तुति करो, तुम जग गुरुगण पाठ। सार्थनाम भूषित सदा सहस एक प्ररु ग्राठ ॥ ६० ॥
चौपाई
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धर्मराज तुम चत्री धर्म, धर्मी महाधर्म किय धर्म धर्म तीर्थ अरु कर्ता धर्म, धर्म वेद उपदेशक धर्म ॥ ६१॥ धर्म करावन धर्म सहित स्वामी धर्म धर्म वित नित । धर्म अराधित धर्म सु ईश धर्म मेंड बंधन धर्मेश ॥ ६२ ॥
द्रव्योंसे भक्ति पूर्वक पूजन किया। देवोंके द्वारा अत्यन्त उत्तमपूर्वक रची गई समवशरण रचना को देखकर इन्द्र बहुत प्रसन्न हुए और देवों के परकोष्ठ में प्रविष्ट हुए। उस ऐश्वर्यशाली सभा मण्डप में उत्तम स्थान पर रखे हुए श्रेष्ठ सिहासन पर विराजमान कोटि कोटि गुणों से युक्त एवं परम तेजस्वी चतं मुख श्रीमहावीर प्रभुको इन्द्रने निनिमेष नेत्रोंसे देखा । तदनन्तर देवताओंके साथ इन्द्रने श्रद्धा पूर्वक घुटनों को टेककर कर्म विनाशके लिये प्रभुको नमस्कार किया। साथ ही अनेक अप्सराओं के सहित इन्द्राणी प्रादिदेवियोंने भी प्रसन्नता पूर्वक त्रिलोकपति महावीर प्रभुको नमस्कार किया जब देवोंके साथ इन्द्रादिने प्रभुको प्रणाम किया तथ उनके मुकुटकी मणियों की प्रभा प्रभुके चरण कमलों पर पड़ी और इस विचित्र मामा के स्पर्शसे उनके चरण अत्यन्त शोभायमान हुए प्रभु गुणों पर परत होकर इन्द्रादि देव अनेक उत्तम एवं लोकिक पूजा द्रव्योंसे पूजा करनेके लिए प्रस्तुत हुए। एक दीयमानमर्ण कलमको टोंटी निर्मल जल धाराको प्रभुके पवित्र चरणों पर गिराने तवे और इस तरह अपने पापों की वृद्धि करने में प्रवृत हुए। पाद प्रक्षालन कर चुकने के बाद इन्द्र ने उत्कट भक्ति के बीभूत होकर स्वर्गीय गुगन्ध युक्त घिसे हुए बन्दनसे भगवान के दिव्या सिंहासन का भयभाग का भोग एवं मोक्ष प्राप्तिके निमित्त पूजन किया। पाकाश मण्डलको अपनी किरणों से श्वेत कर देने वाले दिव्य मोतियों के अक्षत पुंजको अक्षय मुखकी प्राप्तिकी कामनाने प्रभु भागे चढ़ाया और कल्पवृक्षसे उत्पन्न स्वर्गीय पुष्पों को चढ़ाकर इन्द्रोंने सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाली पूजा की । रत्ननिर्मित थाली में अमृत पिण्ड से बनाये गये नवेद्य पदार्थों को इन्द्रने प्रभु के सम्मुख उपस्थित किया और अपने सुख एवं कल्याण की कामना की। उन्होंने अन्धकारको दूर कर देने वाले रत्नमय दीपकों को भी ज्ञान प्राप्तिको इच्छा प्रभुके आगे रखा कृष्ण अगर सादि अनेक उत्तम सुगन्धित द्रव्योंसे बनाई हुई पतियोंसे इन्द्र धर्म प्राप्तिके लिये प्रभु के चरण कमलोंकी पूजा की धूपके पूए से दसों दिशाएं सुर भिमय हो उठीं। इसके बाद कल्पवृक्ष यादि सुर तरुयोंमें उत्पन्न एवं नयनाभिराम उत्तम फलोंके द्वारा इन्द्र फल प्राप्तिको अभिलापासे प्रभुकी पूजाकी और पूजाके अन्त में असंख्यात पुष्पों की पुष्पांजलिये प्रभुके चारों और पुष्प वृष्टिकी। इसी समय इन्द्राणीने प्रभुके सम्मुख पंचरत्नोंके पूर्ण द्वारा अपने हाथों से उत्तम सांथिया बनाया।
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