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केवल दर्शन व्यापित भयो, अन्नातीत जगन्नुत जयौ । लोकालोक देख निज नैव, भाव सकल प्रजापति जैन || ८५ ॥
तुम अनन्त वीरज भगवान, अन्त रहित को है सुख अनन्त प्रभु प्राप्त भयो, निराबाध तन निर्मल जे दुख विषय हृते जगमांहि, सो तुमको प्रतिशय भय इत्यादिक तुम गुण अधिकार, युजन वरन न पा भो प्रभु ! नमी जोर जुन पान, नमो दिव्य मूरति गुन नमो दोपहरता जिनदेव, नम जगत वांधव कर सेव नम विश्व वारणादिक ईस नमो विश्वमूरति जगदीश
प्रवान सफल दोष कर रहित जु ठए, उपमातीत विराजन भए || ६ || ठयो । नर सुर असुर प्रगट नहि होय, सो समर्थ अक्षय तुम जोय ॥ ८७॥ नाँहि । अरु प्रतिहार्ये जु प्रष्ट सहीत, सो हैं प्रभु तन परम प्रवीत || || पार तुम स्तुति जु कथा में कही हो अशक्य उपमा नहि नहीं जिन सर्वज्ञ नम शिर नाथ, नमों अनन्त गुननके राय ॥१०॥ मंगलमूत नमों पद दोष, लोकोत्तम प्रनमो पुन सोय ॥१॥ प्रथम वर्तमान जिनराय नमो वोर स्वामि गुन गाय ॥६२॥
भान
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स्वीकार कर लूंगा 1 परन्तु यदि तुम यथार्थ भाव नहीं बतला सके तो ? इन्द्रको बात सुनकर उस गौतम ब्राह्मणने उत्तर दिया ऐ वृद्ध पुरुष, तो मैं प्रतिशा करता हूं कि तुम्हारे काव्यका यदि मैं उचित व्याख्यान नहीं कर पाऊं तो इस पांच सो को शिष्य मण्डली एवं अपने दोनों भाइयों के साथ में भी अपने जगत्प्रसिद्ध एवं वेद प्रतिपादित सनातन मतको छोड़कर तुम्हारे गुरुका शिष्य बन जाऊंगा। मेरी प्रतिज्ञा कभी असत्य नहीं हो सकती। फिर मेरे वचन के दो साक्षी भी तो हैं। यह इस नगरके स्वामी हैं और यह कश्यप नामका ब्राह्मण है। गौतमकी बात सुनकर उन दोनोंने कहा कि ठीक है, कदाचित् मेरा गर्व भी चलायमान हो सकता है परन्तु इस विद्वान् ब्राह्मणले सत्य वचन तुम्हारे श्री महावीर प्रभुकी ही तरह अटल हैं। जब दोनों ही परस्पर वचन बद्ध हो चुके और अन्य प्रकार की भी कितनी हो बातें हो गयीं तब इन्द्रने गम्भीर स्वर में निम्नलिखित काव्य
कहा --
"काल्यं द्रव्यष्टकं सकल गतिगणा सत्पदार्था नर्नव विश्वं पंचास्ति काया व्रत सिमिति चिदः सप्ततत्वानि धर्माः । सिद्धेर्मार्गः स्वरूपं विधि जनित फार जीवषट्काव लेश्या, एतान् यः श्रद्धधाति जिन बचन रतो मुक्तिगांभीरु भव्यः ॥ १ ॥
इस इन्द्रके कहे हुए काव्यको सुनकर विद्वान् गौतम आश्चर्य चकित हो गया। श्लोक का कुछ भी अयं उसकी समझ नहीं श्राया । प्रतिष्ठा भंग के खयाल से ग्रह मनमें ही तर्क-वितर्क करने लगा यह काव्य तो बहुत हो कठिन है कुछ समझ ही नहीं आता । दलोक में 'जैकाल्यम् शब्द है तो तीन काल कौन-कौन से हो सकते हैं ? इस त्रिकालमें उत्पन्न सभी वस्तुओं को जाने वही सर्वज्ञ है और वही इस काव्यका ज्ञाता भी है। मैं भला क्या जानू ? 'पटक' में छः द्रव्य कौन-कौन है? 'सकल गति गणाः' से सम्पूर्ण गतियां फोन कोनसी हैं ? उनका स्वरूप क्या है? सत्पदानव में उत्तम नव पदार्थ कौन-फोनसे हैं। इसके पूर्व तो मैंने नव पदार्थों के विषय में कुछभी नहीं सुना । 'विश्व क्या है ? यह सब विश्व ही तो है ? या तीनों लोक विश्व हैं। कुछ निश्चय नहीं है। पंचास्ति काया' में पांच प्रास्तिकाय क्या है ? अत समिति चिदः' में व्रत क्या है। समिति किसे कहते हैं ? ज्ञानका क्या स्वरूप है ? इन सबका फल क्या है। और 'सप्त तत्वानि' में सात तत्व कोन कोनसे हैं ? 'धर्माः में धर्म क्या है ? 'सिद्धेर्मार्ग में सिद्ध अथवा कार्य निप्पत्ति क्या है? उसका मार्ग क्या है? एक ना अनेक मार्ग है? 'स्वरूप' में स्वरूप क्या है ? 'विधि जनित फल' में विधि क्या है ? उससे उत्पन्न फल क्या है ? 'जोत्र पट्काम लेश्या' में छः प्रकारके जीव निकाय कौन-कौनसे हैं ? छः लेश्या क्या हैं? इन सब बातों को तो मैंने कभी नहीं सुना। फिर इन सबका लक्षण एवं स्वरूप में क्या जानूं ? ये बात तो हमारे वेद एवं स्मृति ग्रन्थों में कहीं नहीं हैं। उफ् ! इन छोटेसे काव्य में तो सब सिद्धान्त ही भरे पड़े है। यह बुडा तो सिद्धान्त समुद्रका सारा रहस्य ही हमसे काव्य के बहाने पूछ रहा है। में स्वीकार करता हूं कि, इस छोटेसे काव्यका गूढार्थ उस सर्वज्ञ एवं उसके सुयोग्य शिष्यके सिवा दूसरा कोई कदापि नहीं कह सकता है । यदि मैं इस बुढ़ेको अर्थ नहीं बनाता तो प्रतिष्ठा घटती है। इसलिए इसके गुरुसे ही शास्त्रार्थ करना चाहिए। ऐसा सोचकर गौतम ब्राह्मणने इन्द्रसे कहा- मैं इस विषय में तुमसे विवाद न कर तुम्हारे गुरु से ही शास्त्रार्थ करूंगा। ऐसा कहकर काल लब्धि ( उत्तम भवितव्यता) के वशीभूत होकर गोतम चित्र अपने पांच सौ शिष्यों एवं दोनों भाइयोंके साथ श्रीमहावीर प्रभु सभा मण्डपमें जाकर वाद करने के लिए घर से निकल पड़ा ।
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