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तिनकी कहा कही परजाय, थिति संसार मोक्ष को पाय । ग्रजीव तत्व है के प्रकार, राबके गुण कहिये विस्तार ॥१०१।। प्रास्रव आदि तत्व के और, के सुख करता के दुख ठोर । कौन तत्वफल लक्षण कौन, करता कौन कहो प्रभु तीन ।।१०।। कोन तत्व को साधै मोख, कौन करम नारक दुख पोख । कौन करम तिर्यच जु होय, कौन क्रिया कर स्वर्ग संजोय ॥१०३।। कि शुभ कर्म मनुषगति लहै, कोन दानत भोग भोगहै। अस्त्रोलिंग क्षोण किम होइ, सो आचरण बतायो मोइ ।।१०४॥
जिनमें आपका गर्भादि कल्याण एवं केवलज्ञान का प्रावि गा! अाया जा केदाजानमार्ण संसार के लिये अज्ञेय एवं प्रव्यापक है। इसलिये प्राकाश मात्र हो में व्याप्त हाकर वह स्थित है। इसलिये मसार के भव्यों के द्वारा अापके सर्वज्ञ एवं संसार के सम्पूर्ण रहस्योंको जानने वाले तथा इस अनन्त विश्व के स्वामो माने गये है। हे स्वामिन आपका केवलज्ञान अनन्त है और जगबन्ध हैं। यह भी लोक प्रलोकको देखकर केवल जानकी ही तरह है । हे प्रभो, आपका अनन्त वोय सकल दोषोंमे वर्जित है। सारे पदार्थोंके दर्शन होने पर भी यह अनुपम बना हुमा है। देव अापका अक्षय एवं परमोत्तम सुख निर्वाध है। वह इन्द्रियातीत एव अनुपमेय होने के कारण संसारिक जाबांके लिए अनुभव गम्य नहीं हो सका । हे महावीर प्रभु, आपके ये चारों अनन्त गुण
- - - स्वर्ग को तो मुखों की खान बताया जाना है। यह जीव स्वर्ग में भी अनेक वार गया, परन्तु जितनी इंद्रियों की पूति होती गई उतनी ही अधिक इच्छाओं की उत्पत्ति के कारण वहां भी यह बात रहा, दूसरे देवों को आने से अधिक शक्ति और ऋद्धि को देखकर ईर्षा भाव से कुन ना रहा । इस प्रकार यह संसारी जीव अपनी आत्मा के स्वरूप को भूलकर देव, मनुष्य, पशु, नरक चारों गतियों की चौरासी नाख योनियों में भ्रमण करने हुये कपायों को अपनी आत्मा का स्वभाव जानकर उनमें आनन्द मानता रहा । स्वर्ग में गया तो अपने को देव, पशु गति में अपने को नारकीय समझता रहा । मनुष्य गति में भी राजा, ठ, अकील, डाक्टर, जज, इंजीनीयर जो पदवी पाता रहा उराको अधनारवरूप मानना रहः । क्षण भर भी यह विचार नहीं किया कि मैं कौत हूं मेरा असली स्त्ररूप क्या है ? मेरा कर्त्तव्य क्या है ? यह संसार कपा है ? मैं इसमें क्यों भ्रमण कर रहा है। इस आवागमन के चक्कर से मुक्त होने का उपाय क्या हो सकता है?
देव हो या नारकीय, मनुष्य हो या पश, राजा हो गा रंक हाथी हो या कोड़ी, आत्मा हर जीव में एक समान है। दारीर आत्मा से भिन्न है। जब यह शरीर ही अपना नहीं और जीव निकल जाने पर यहीं पड़ा रह जाता है, तो स्त्री-पुत्र, धन-सम्पत्ति आदि जो प्रत्यक्ष में अपनी आत्मा से भिन्न हैं, अपनी कैसे हो सकती हैं ? संसारी पदार्थों की अधिक मोह-ममता के कारण हो अज्ञानी जीब निज-पर का भेद न जानकर अपने से भिन्न पदार्थों को अपनी मान बैठता है।
___ इस विश्वास का कि पर-द्रव्य मेरे हैं, मैं उनका बुरा या भला कर माता हूं.. यह अर्थ है कि जगत में मो अनन्त पर-द्रव्य हैं, उनको पराधीन माना । पर द्रव्य मेरा कुछ कर सकता है, इसका मदनब नह है कि अपने स्वभाव को पराधीन माना । इस मान्यता रो जगत के अमन स्वभावों की स्वाधीनता की हत्या हुई । इसलिये इसमें अनन्त हिंसा का पाप है।
जगत के पदार्थों को स्वाधीन की जगह पराधीन गानमा तथा जो अपना स्वरूप नहीं, उसको अपना स्वरूप मानना अमन्त झठ है।
जिसने अनस्ल पर-पदार्थ को अपना माना उसने अनन्त चोरी का पार किया । एक द्रब्य दूसरे का बुद्ध कर सकता है" ऐसा मानने बाले ने अनन्त द्रव्यों के साथ एकता कर अभिवार करके अनन्त मैथुन सेवन का महापाप किया है। जो अपना में होने पर भी जगत के पर पदार्थों को अपना मानता है, वा अनन्त परिग्रहों का महापाप करता है। इसलिये पर पदार्थों को अपना जानना और यह विश्वास करना कि मैं पर का भला-बुरा कर सकता है या वह भेग भला-वरा कर सकते हैं, जगत का गबसे अड़ा महापाप और मिथ्यात्व है।
तीन लोक के नाथ थी तीर्थंकर भगवान कहते हैं “मेरा और तेग आत्मा एक ही जाति का है। मेरे स्वभाव और गुण वैसे ही जैसे तेरे स्वभाव और गुण । अहंन्त अथवा केवल ज्ञान दशा प्रकट हुई वह कहीं बाहर से नहीं आ गई । जिम प्रमार मोर के छोटे से अडे में साई तीन हाथ का मोर होने का स्वभाव भरा है उसी प्रकार तेरी आत्मा में परमात्म पद प्रकट करने की शक्ति है । जिस तरह अण्डे में बड़े-बड़े जहरीले सपं निगल जाने की शक्ति है उसी तरह तेरी आत्मा में मिथ्यात्य रूपी विष को दूर करके अईत पद अथवा केवल ज्ञान प्रकट करने की शक्ति है। परन्तु जैसे पह शंका करके कि छोटे से अण्डे में इतना लम्बा मोर कैसे हो सा है उसे हिलाये-डुलाये तो उसका रस सूख जाता है और उससे मोर की उत्पत्ति नहीं होती, वैसे ही आत्मा के स्वभाव पर विश्वास न करने तथा यह वांका करने से कि मेरा यह संसारी आत्मा सर्वज्ञ भगवान के समान करो हो सकता है, तो ऐसी मिथ्यात्व रूपी शका करने में सम्यग्दर्शन नहीं होता।
सम्यग्दर्शन अनुपम सुखों का भण्डार है, सर्व कल्याण का बोज है, पाप रूपी वृक्ष को काटने के लिए कुल्हाड़ी के तथा संसार रूपी सागर