________________
धर्म ज्येष्ठ धर्मातम नीत, धगं भ्रात पर धर्म गुनीत । धर्म भाग्य धर्मज्ञ सुजान, धर्माधिप धी धर्म बखात ।।६।। महा धर्म तुम महा मुदेव, महानन्द मह ईश्वर भेव । महा तेज अरु मानी महा, महापवित्र महातप लहा ॥६४।। महा ग्रातमा दानी गहा, जोगी महा महाबत लहा। महाज्ञान महाध्यानी सोय, महाकरुण मह कोविद जोय ।।६।। महाधीर महावीर सुजान, आर्य महा मह ईश बखान । महा दात महा रक्षक कह्यौ, महाशर्म माहीधर लह्यो ।।६६।। जगन्नाथ जगकरता देव, जगभर्ता जगपति गुण सेव । जगत जेष्ठ जगमान्य ज सर्व, जगतसेव्य जग नम्रता तब ।।६७।। जगत पूज्य जग स्वामी धार, जगवासी जग गुरु अविकार । जग बांधव जगजीत अपार, जगनेता जग प्रभ अवधार ।।६।। तीरथ वृत तीरथ भूतमा, तीरथ नाथ तीर्थ बित पमा । तीर्थकर तीरथ प्रातम, तीर्थ ईश तीरथ कर नमा ।।६६।। तीरथ नेत स तीरथ ज्ञान, तीर्थ हृदय तीरथ पति जान । तीर्थराज तीर्थाकित सार, बाँधव, तीर्थ, तीर्थ करतार ७०॥ तुम विश्वश विश्व तत्वज्ञ, व्यापि विश्व विश्ववित यज्ञ। विश्व अराध्य विश्व के ईश, विश्वलोक सु पितामह धीश ||७|| विश्वाग्रणी विश्व पारामा, विश्व अन्य विश्वहि पति नमा। विश्वनाथ विश्वाढ्य बखान, विश्वव्रत विश्वक्रत जान ॥७२॥ ही सर्वज्ञ सर्व लोकल टरशी सर्व. सर्व व्युत्पज्ञ । सर्व आतमा सब धर वेष, सर्वहि सर्व वुद्ध सुशर्म ||७३।। सर्व देव धिप सब लोकीश, सर्व कर्महत है जगदीश । सब विद्यावे ईश्वर पर्म, सर्व धर्मकृत सर्व सुशर्म |७४।।
पूजाकर चकनेके बाद इद्रने हाथ जोड़कर भक्तिपूर्वक प्रणाम किया और मधुर स्वर में प्रभके गणोंकी स्तुति करना प्रारम्भ किया । देव, तुम सम्पूर्ण जगत्के स्वामी हो। तुम्हीं गुस्नों के भी श्रेष्ठ गुरु हो, पूनियों के भी परम पूज्य हो, एवं वन्दनीयोंके वन्य हो! योगियों में सर्व श्रेष्ठ योगी हो, गणियों में उत्तम गणवान हो, और सभी धर्मात्मानोंमें परमादरणीय धर्मात्मा हो। ध्यानियों में महा ध्यानी, यतियों में बुद्धिमान यति, ज्ञानियोंमें महान ज्ञानी, और स्वामियोंके भी स्वामी तुम्ही हो । तुम जितेन्द्रिय हो । जिनों में जिनोत्तम होने के कारण ध्येय एवं स्तुत्य तुम्ही हो । दाताओं में उत्तम दानी तुम्ही हो, और हितेच्छुकोंमें परम हितेपी तुम्ही हो । संसारके भयसे त्रस्त पुरुषोंके रक्षक, शरण-हीन जीवों के शरण दाता और सम्पूर्ण कर्मजालके नाशक प्राप ही हैं । मोक्षके पथ प्रदर्शक, जगतके कल्याण का पीर बान्धव विहीन जीवों के अनन्यतम बन्धु पाप ही हैं ।
तीन लोकतो उत्तम राज्यकी इच्छाके कारण महान लोभी एवं मक्ति रूपिणी स्त्रीको अभिलाषा करने के कारण अत्यन्त रागी आप हैं। सम्यक् दर्शनादिक रत्नोंका संग्रह अापने किया है, इसलिये पाप महा परिग्रही हैं, कर्म रूपी शत्रुओंको नष्ट कर डालनेके कारण महाहिसक हैं तथा कषाय एवं इन्द्रियोंको जीत लेनेके कारण प्राप महान विजयी हैं । आप शरीरादिके विषयमें इच्छाहीन होकर भी लोगान शिखरको चाहने वाले हैं, देवियोंके मध्य में रहकर भी परम ब्रह्मचारी हैं और आप एक मुख होकर भी अतिशयके. कारण चार मुख वाले दिखायी पड़ते हैं। इस लोकमें श्रेष्ठ लक्ष्मीसे युक्त होने पर भी आप निग्रंथराज हैं, और जगद्गुरु होने के कारण अनुपमेय गुणों के प्रधान प्रापही हैं। हे देव, आज हमारा जीवन सफल हुआ और हम धन्य हुए। आपके दर्शनों के लिये हमें जो यात्रा करनी पड़ी इससे हमारे दोनों पैर कृतकृत्य हो गये । तुम्हारी पूजा करनेसे हाथ और चरण कमलोंके दर्शन करनेसे हमारे नेत्र आज सफल हो गये।
प्रणाम करने के कारण हमारा मस्तक, सेवा करनेके कारण हमारा शरीर एवं आपके गुणोंके वर्णन करने के कारण हमारी वाणो सफल एवं पवित्र हो गयी। थ आपके अनुपमेय गणोंके बिचार करने की वजह से हमारा मन भी निर्मल एवं पवित्र हो गया। हे प्रभो जब आपने असंख्य गणोंकी प्रशंसा गौतम आदि गणधर भी अच्छी तरह नहीं कर सकते तब हमारे जैसा गढ़मति भला, आपकी स्तुति क्या कर सकता है? इसलिए मैं आपकी स्तुति क्या करू' ? प्रभो, पाप अनन्त मुणवाले हैं, सर्व प्रधान है, जगदगरू हैं, आपको कोटिशः प्रणाम है। आप परमात्म स्वम्प हैं, लोकों में उत्तम है, केवल ज्ञानरूपी महा राज्यसे अलंकृत हैं, अनन्त दर्शन स्वरूप हैं अत: पापको बार बार नमस्कार है। आप अनन्त सुख रूप हैं, अनन्त बीर्य रूप हैं और तीनों जगतके भव्य जीवोंने मित्र हैं, अत: आपको पुनः पुनः नमस्कार है। आप लक्ष्मीसे बढ़े हुए हैं, सबका मंगल करने वाले हैं, अत्यन्त बुद्धिमान हैं, श्रेष्ठ योद्धा हैं, तीनों जगतके स्वामी हैं, और स्वामियोंके भी परम श्रद्धेय स्वामी हैं। आप लोकातिशय सम्पत्तिमे युक्त हैं, चमत्कार पूर्ण हैं, दिव्य देह एवं धर्मरूप हैं आपको कोटि कोटि नमस्कार है । माप धर्म-मृति हैं, धर्मोपदेशक हैं, धर्मचक्र