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द्वादश अधिकार
मंगलाचरण
दोहा प्रणौ श्री प्ररहंत जिन, केवल ज्ञानधिराज । भव्यन प्रति उपदेशियो, धर्म तीर्थ हित काज ॥२॥
गौतम गणधरका समवसरणमें आगमन
चौपाई
अब श्री जिनवर मुख उच्चार, वाणी खिरै विविध परकार । अविरल शब्द अनक्षर सोय, गणधर तहां न तिष्ठ कोय ॥२॥ तब सौधर्म सरेश विचार, अवधिज्ञान कर चित अवधार । बैठे निज कोठा मुनिवृन्द, तिनमें कोई नहीं गणीन्द्र ॥३॥ अर्हतमुख वाणी बहू होइ, गणधर बिना न समरथ कोई । यह चिंतत जानी बल ज्ञान, गौतम' विप्र बुद्धि बलवान ।।४।।
जमाना
"श्रीमते केबलज्ञान, साम्राज्य पद शालिने । नमोवृताय भव्योधधर्म तीर्थ प्रवत्तिने ।।१।।"
अर्थात जो केवल ज्ञानरूपी साम्राज्य का पाकर शोभायमान हैं और भव्य जीवों के समूह से घिरे हुए हैं, उन धर्मतीर्थ प्रवर्तक एवं श्री सम्पन्न महावीर अहंत को नमस्कार है।
.--- .. - - -- १ इन्द्रभूति पर वीर-प्रभाव जब लोग एक पंसे की मिट्टी की हडियां को भी ठो बजाकर खरीदते हैं, तो अपने जीवन के सुधार और विगाड़ वाले मसले का दिना परीक्षा किये क्यों आंख मीच कर अहण करना चाहिये । इन्द्रभूति गौतम आदि अनेक महापंडिनों ने तर्क और न्याय की कसौटी पर भगवान महावीर के जादिष्ट ज्ञान को कसा और जब उसे सौ टंच सोना समान निखिल सत्य पाया तो वे उनकी शरण में आये ।
थी कामताप्रसाद : भगवान महावीर १० १३८।। श्री व मान महावीर के सर्वज्ञ हो जाने पर उनकी दिध बनि न खिरी तो सोचर्म नाम के प्रयम स्वर्ग को इन्द्र अपने ज्ञान से गणघर की आवश्यकता समझकर उसकी खोज में चल दिया । उस समय वह्मणों का बड़ा जोर था । चारों वेदों के महाज्ञाता और माने हुए विद्वान् इन्दभूति थे । इन्द्र ब्राह्मरण का वेष धारण कर उनके पास गया और उनसे कहा, "कि मेरे गुरु ने इस समय मौन धारण कर रखा है, इसलिये आप ही उसका मतलब बताने का कष्ट उठायें।" इंद्रभूति गौतम बहुत विद्वान थे, उन्होंने कहा-'मतलब तो में बताऊंगा मगर तुमको मेरा शिष्य बनना पड़ेगा" | इन्द्र ने कहा, "मुझे यह शर्त मंजूर है परन्तु आप उसका मतलब न बता सके तो आपको मेरे गुरु का शिष्य होना पड़ेगा"। द्रभूति को तो अपने ज्ञान पर पूरा विश्वास था, उसने कहा, "तुम अपने श्लोक बनाओ, हमें तुम्हारी शर्त मंजूर है।" इस पर इंद्र ने बलोक कहा:
"काल्यं द्रव्यषट्वं, नव पदसहितं, जीवषटकायलेश्याः । पचान्ये चास्तिकाया, अतसमितिगतिज्ञानचारित्रभेदाः ।। इत्येतन्मोक्षमूल त्रिभुवनमहितः प्रोक्तमर्हन्दिरीशः।
प्रत्येति थवधाति स्पृशति च मलिमान यः सर्वं शुद्धदुष्टिः' ।। दलोक को सुनकर इन्द्रभूति गौतम हैरान हो गये और दिल ही दिल में विचार करने लगे कि मैंने सो समस्त वेद और पुराण पढ़ लिए
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