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अक्षत गुण मंतिष्ड धवल अखंडित, मुक्ताफल छनि अधिक धरं । तिहि पंच हि पूजं करत संजूतं, मानहु र न उौत में।
पूजत सुरराज०।२०१॥ अक्षतम् मालति अरविन्दं चंपक कुन्द, बेल गुलाब सिगार हरं । केबर करनारं केतकि भार, पूजी पांडरि जुही भरं ।।
पूजत सुरराज ० ।।२०२।। पुष्पम् । नाना पकवानं घेबर सातं, मोदक लाइ सद्य बरं । रत्ननमय थारी शोभित भारी, उपमहारी अग्र बरं ।।
पूजत सूरराज०।।२०३।। नैवेद्यम् । रतनन मय दीपं धरत समीपं, अति उद्योतं न जाय कहं । सब जगत प्रकारां अघतम नाश, धूम रहित छबि ताहि लह ।।
पूजत सुरराज ॥२०४।। दीपम् । कृष्णागर पूरं तगर कपूर, केशर चूरं मलय गिरं । इहि प्रादि दशांगं धूप तरांग, स्खेवत धूपं प्रकाश भरंम् ।।
पूजत सुरराज० ॥२०५।। धूपम् । दाडिम नारंगी केला पुगी, पाम्र बिजौरे निंबु वन । नारीयर भारं एला सारं, इत्यादि फल शुद्धयन ।।
पूजत सूरराज ॥२०६।। फलम् । जल गंध सुसारं अक्षत भारं, पुष्प सहित नवेद्य भरे। दोपादि अपारं धूप संवारं, फल कल्पद्म शुद्ध वरं ।। कंचनमय थारी स्वस्तिक धारी, ल सुरनायक नृत्य करं। पहुपांजलि छोपही कर्मन खिपही, जिनपद ग्रामे अर्ध धरम् ।।२०७॥
अय॑म् ।
दोहा
इमि पूजा स्तुति बहु करी, प्रनम्यौ वारंवार । अमर सहित अमरेश जहं, धर्म उपायो भार ॥२०॥ वर्धमान भगवान के सम्मुख दृष्टि लगाय । इन्द्र प्रादि द्वादश सभा, बैठी निज निज थाय ॥२०६।।
गीतिका छन्द
श्रीवीर नाथ जिनेश अन्तिम, चरन वंदित मुनि गनी । परम पावन बुध नमित प्रभु, जजह जग चुडामनीं ॥ सुर असुर जिनको भत्तिा आगे, गुणं अनंत सुजानिये । सो समोशरण विभूति निरुपम, अधिक कहा बखानिये ।।२१।।
जातियाँ एवं निविड़ अन्धकारको दूर कर देनेवाले प्रकाशमान महारत्नों के द्वारा कुवेर देव ने किया था। इसका वास्तविक वर्णन करने में श्री गणधर देवके अतिरिक्त कोई अन्य वृद्धिशाली नहीं समर्थ हो सकता। इसी गन्ध कुटीके मध्य भागमें इन्होंने बहुमूल्य एवं ज्योति पूर्ण महारत्नों के द्वारा एक अलौकिक स्वर्ण सिंहासन को तैयार किया। प्रचण्ड मार्तण्डकी प्रखर किरणं उस स्वर्ण सिंहासन के प्रकाश के सामने फीकी सी जान पड़ती थीं । सिंहासन पर कोटि सर्य के समान प्रभावाले जिनेन्द्र देव थीमहावीर प्रभु ने तीनों लोक के भव्यों से घिरे हुए उस सिंहासन को सुशोभित किया। परन्तु उनको महिमा अपार है । वे अपनी आश्चर्यजनक महिमा के ही कारण स्वर्ण सिंहासन के धरानल मे चार अंगुल ऊपर निराधार अन्तरिक्षमें अबस्थित रहे। वे सम्पूर्ण भव्यों के उद्धार करने में समर्थ थे। देव निमित वाह्य विभूतियों में यूका जगदादरणीय श्री महावीर प्रभ को सब भव्य जीवों ने श्रद्धाभक्ति पूर्वक प्रणाम किया। वे प्रभ संसारके मुकुट मणि हैं, अनुपम, असंख्य एवं उत्तम गुणोंसे युक्त हैं, और केवल ज्ञानरूपी महा सम्पत्तिसे विभूषित हैं। उन जिनेन्द्र प्रभके चरणारविन्दों को मैं प्रादर पूर्वक नमस्कार करता हूं। प्रभ तीनों लोक के जीवा को उबार लेने में परम समर्थ हैं, अत्यन्त प्रतिभाशाली हैं, कर्मरूपी महाशत्रओंके यशस्वी नाशक हैं, बारह सभाओं में बैठे हा जीवों को धमपिदेश देने में प्रयत्नशोल रहत है। अकारण बन्धु हैं, अनन्त चतुष्टय से युक्त हैं। उनकी अतुलनीय गण-सम्पत्तियोंको पानेके लिये उन प्रभुको में नमस्कार करता हूं। वे अत्यन्त विशिष्ट गुणों की खान हैं, केवल ज्ञानरूपी दिव्य नेत्रों से दिव्यनुष्टि वाले है, त्रिलोक के स्वामी इन्द्र धरणेन्द्र एवं