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भयौ पवित्र गात्र सब मोहि, कर पवित्र पद प्रनमा तोहि । दोष सकल मेरे तुम हरे, सुख समाज संपूरन करे ।।१६६॥ इहि विधि थुति कीनो अधिकार, पुण्य उपायौ नव परकार । बहु बिधि हरष चित्त नृप करी, दान तनी श्रद्धा उर धरी ।।१६७।। यथाशक्ति निज परकट कीन, पात्र दान उद्यत परवीन । सुश्रुषा बहु भांति करेय, भयौं भक्ति में तत्पर तेय ॥१६॥ यह विचार नृप कृपानिधान, परम क्षमा धीरज मन आन । क्षीर अन्न मिश्रित कर ठान, मन वच काय शुद्धि उर मान ॥१६॥ प्रासुक मधुर सरम निदोष, क्षुधा तृषा नाशक सन्तोष । सो अहार प्रभु लीनो जब, पंचाश्चर्य' करे सुर तब ।।१७।। राजभवन अंगन भू मांहि, रत्नबुष्टि पूरी अधिकाहि । अति अमूल्य अरु थूलप्रपार, बरष मनो मेघ की धार ।।१७।। पहुप सुगंध वृष्टि अधिकार, दुदभि शब्द होय अतिसार । जय जय घोष होय अति धनी, दाता जश गावें सुर मनौ ॥१७॥ परम दान फल बहु बिध होय, भव समुद्र ते तार सोय । जिहि घर कोनों गमन जिनेश, सो दाता धन जगत महेश ।।१७३॥ दान पुरुष की परम निधान, स्वर्ग मुक्ति को कारण जान । बहु प्रकार जाके ग्रह देव, जय जयकार करें स्वमेव ।।१७४।। उत्तम पात्र दान फल लोय, कोटिन की धन प्रापति होय । परभव स्वर्ग भोग भूलहै, तप कर फिर शिवपन्थ जु गहै ।।१७५॥ मब पुरजन नग अंगन माहि, रतन राशि देख मालिकाहि । गाई। हम बैन, दान नाना फल अति सुख दैन ।।१७६।। तिन बच सून भविजन इमि कहै, दान तनौं फल बहु विधि लहैं। कोई भोगभूमि सुर कोय, कोई मोक्ष लहैं तप जोय ॥१७॥
दोहा वर्धमान जिनराज इमि, लीनों परम प्रहार । भूपति भवन पवित्र कर, फिर वन गये संवार ।।१७।। दान तनों फल नृप लह्यो, मुख संपति गुण गेह । बहुजन हरष बढ़ाय हि, कियो दानसौं नेह ।।१७६।।
पवित्र जलसे धोया । उन प्रभके पाद प्रक्षालित जल को राजा ने अपने सम्पूर्ण अंगों में लगाया । इसके बाद राजा ने जलादि शाह प्रकार के प्रासक द्रव्योंसे प्रभकी भक्ति पूर्वक पूजा की। राजाने अपने मन में विचारा कि आज घर में सुपात्र उत्तम अतिथिका जानेसे मेरा गार्हस्थ्य-जीवन सफल हुया । मैं पुण्यकर्मा हूं। इस पवित्र बिवेकसे राजाका मन और भी विशेष पवित्र हो गया। १. बोर स्वामी के आहार को अपने अवधिज्ञान से जान कर स्वयं के देवों तक ने पंच अतिशय किये।
२. वीर-चरण-रेखा जमे योद्धाओं में वासुदेव, फलों में अरविन्द कमल, क्षत्रियों में चक्रवर्ती श्रेष्ठ हैं । बने ही ऋषियों में श्री वर्द्धमान महावीर प्रधान हैं. कि जिनके चरणों में अपना सिर झुकाने के लिए स्वर्ग के इन्द्र और संसार के चक्रवर्ती लालायित रहते हैं।
-सूत्र कृतांग सोने की पालिवी में चलने वाले राजकुमार वर्द्धमान आहार करने के बाद नगे पांव पंदल जंगल को वापिस लौटे और एक वक्ष के नीचे पदमासन लगाकर ध्यान में लीन हो गए। थोड़ी देर बाद उसी रास्ते से पुष्पक नाम का मामुद्रिक शास्त्री गुजरा तो उसने वीर स्वामी के चरणों की रेखा देखकर अपने सामुद्रिक ज्ञान मे जान लिया कि यह चरण किसी बहुत भाग्यशाली और प्रतापी सम्राट के हैं, उसने विचार किया कि अवश्य कोई महाराजा रास्ता भूलकर इस जंगल में आ चुसा । यदि मैं उनको सही रास्ता बता दूं तो वे मुझे इतना धन देंगे कि मैं सारी उम्र को जीविका को चिना से मुक्त हो जाऊंगा। यह सोचकर वह पांव के चिन्हों के साथ-साय चलता हुआ उसी म्यान पर पहुंच गया कि जहां वीर स्वामी ध्यान में मन्न थे। वह पागे को चनने लगा, परन्तु पांव के निशान आगे न दीधे । वह केवल उस वृक्ष तक ही थे । सामुद्रिक शास्त्री को बड़ा कोई सम्राट नजर न पड़ा । बीर स्वामी को साधारण गाघु जान कर विचार किया कि शायद मेरी समझ में कुछ अन्तर रह गया हो, उसने वहीं आनी पुस्तक को अगल से निकाल कर वीर स्वामी की रेखाओं से मिलान किया तो वह आश्चर्य करने लगा कि पुस्तक के अनुसार लो ये बहे भावशाली सम्राट होने चाहिये, परन्तु यहां तो इनके पास लंगोटी तक भी नहीं। उसने सोचा कि मेरी यह पुस्तक गलत है जिस तरह आज इससे मोखा हया याइन्दा भी भय है, इसलिए वह अपनी पुस्तक को फाड़ने लगा। जो लोग वीर स्वामी के दर्शनों को आये थे उन्होंने पूछा, पण्डितजी यह क्या? उसने कहा, "मेरी पुस्तक के अनुमार थे चरण रेखायें किसी प्रतापी महाराजा की होनी चाहिये, परन्तु उनके स्थान पर मैं ऐसे साधारण मनुष्य को देख रहा हूँ कि जिस बेचारे के पास एक लत्ता तक भी नहीं, मेरा ग्रन्थ गलन मालूम होता है, इसके रखने से क्या लाभ?" लोगों ने समझाया कि पवितजी ! जिन को आप साधारण भिक्षुक समझते हो ये तो महाराज सिद्धार्थ के भाग्यशाली राजकुमार है, जिन्होंने राज्यकाल में किसी भी याचक को खाली हाथ नहीं लौटया और अब एक ऐसा असाधारण दान देने के लिए तैयार हुए हैं कि जिसको पाकर संसार के समस्त प्राणी सम्वा सुख और शान्ति अनुभव करेंगे। यह सुनकर पण्डितजी बड़े प्रसन्न हुए और बीर स्वामी को भक्तिपूर्वक नमस्कार किया।