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ध्वजा छत्र ता ऊपर सोहि जगत जीव मन लेतं मोहि मूलभाग जिन प्रतिमा घरी, छत्रभर जुत राजे वरी और मनंग शोभ तिस थान, राद्वीप्ति लाजे राम भान थंभ एकदिश चारों जान, सजल वापिका कमल निधान तिनके तट इक कुंड महान, चारहुं दिश चारों परवान । पग प्रक्षाल के भविजन जहां, आगे
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तह से बीवी चार जू चली कछु अन्तर इक शोभा भयो कमल सहित भ्रमश गुंजरी, हंस कलापि शोर करें सपना र मनुराय वनके मध्य शिला रमणीक, चन्द्रकान्त मणि आभा ठीक। यहं कछु अन्तर ति घार, कंचन कोट जु बलयाकार तं चारों दिश गोपुर हैं चार, रजतमई तिम्सने यागार श्रृरुण हाथ ऊंचे कर सोय, जगलक्ष्मी यह नाचे कोय। प्रभुके मन कछु चाह नयाय, बेमन चलि से
मानी करें मान वह कोय, देखें मान थंभ मंद खोय ||६| इन्द्रादिक मानन्द बढ़ाय, पूजा वहां करहि मन ला ॥८७॥ विधि समान वंभ ये चार सकल विभूति एकसी वार । नन्दादिक तिनको है नाम, चारों दिश सोरह सुखधाम ॥८६॥ गमन करें चलि तहां ॥६०॥ खाई गिरदाकारहि सरो, प्रति गंभीर जल निर्मन भरी ॥१॥ मणिमय तट दोऊ राजत, गंगावत, शोभा परजंत ॥६२॥ सघन छह पट ऋऋतु फल फूल, विह देव जोषिता कूल ॥१३॥ तहं सुरपति कीने विश्राम, शीतल छाया सुखको धाम ॥ ६४ ॥ मानुयोग परवत यह मनौं, यति उतंग बहु यांतिक वनों ॥६५॥ रतनमयी कलया जगमने, लाल चरण अति सुन्दर ल ६६ जहां रहें नवनिधि कर वास, पिंगलादि तिन नाम विलास ॥६७॥ जिनपाय मंगल द्रव्य मनोहर ठाठ, गोपुर प्रतिहि एकसाँ
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चित्रों सहित भरा हुआ था। उस समय ऐसा मालूम पड़ता था कि हंस रहा हो। उस कोटके चारों दिशाओं में चार दरवाजे थे । वं तिमंजले थे । वे दरवाजे स्वयं प्रकाशित होकर अपना प्रभाव बना रहे थे । महामेरु पर्वत के समान अत्यन्त ऊंचे, पद्मरागादि मणियों के द्वारा बनाये गये दरवाजोंके गगन चुम्बी शिखर शोभायमान हो रहे थे। उन विशाल दरवाजों पर बहुतसे गायक देव गन्धर्व तीर्थकर श्रीमहावीर प्रभुके उत्तम गुणोंका सुमधुर स्वरमें गान कर रहे थे। इन गुण गानको कुछ लोग तो सप्रेम सुन रहे कुछ गुणोंकी श्रेष्ठता सम्वन्ध में विचार रहे थे और कुछ देव-वृन्द उमंगमें आकर नाच रहे थे। प्रत्येक द्वार पर मुंगार कलश एवं इत्यादि १०८ (एक आठ) मांगलिक द्रव्य यथा रीति रखे हुए वे उन प्रत्येक द्वारों पर नानाविध रहनीके बने हुए सौ सौ तोरण टंगे हुए थे और उनमें से विविध वर्णकी ज्योंतियां मिलने से ग्राकाश चित्रित सा जान पड़ता था। उन तोरण में लगे हुए रत्नाभूषणों को देखकर जान पड़ता था कि रत्नाने प्रभुके सुन्दर शरीर को स्वभावतः ही देदीप्यमान देखकर वहां पर अपने रहनेको श्रावश्यकता नहीं समझे और उनकी शारीरिक कान्ति से पराजित होकर इन तोरणों में आकर वे रस्न समूह ब गये । शंख इत्यादि नौ निधियों को द्वार पर रखी हुई देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो अर्हत प्रभुके द्वारा तिरस्कृत हो जाने पर ये दरवाजेके बाहर आ गयी हैं और यहीं पड़ी रहकर भगवान की सेवा करने के लिये अवसर की प्रतीक्षा कर रही हो ।
उस दरवाजे के भीतर एक लम्बा-चौड़ा राज-पथ था और उसीके दोनों बोर दो नाट्यशालाएं बनी हुई थीं। इसी प्रकार चारों दिशाओंके चारों मुख्य द्वारों के भीतर प्रत्येक में वो दो नादयशालाएं बनी हुई थी। वे तिमंजली बहुत ऊषी नाट्य शालाएं मानों अपने मस्तक को दटाये भव्य जीवों से कह रही हो कि सम्यक दर्शन इत्यादि तीनों स्वरूप ही मोक्ष के मार्ग हैं। ना शालाओं की दीवार स्फटिकमणीकी बनी हुई थी और उनके खम्भे सोनेके बनाये गये थे। उन वैभव पूर्णशालाओं को रंग भूमि में अप्सरानों का नात्र हो रहा था । वहां पर बहुतसे गन्धर्व देव अपने कोमल कंठसे प्रभुकी विजय गीति एवं केवल ज्ञान के समय होने वाले श्रेष्ठ गुण-गीतों को गा रहे थे । पूर्वोक्त राजमार्ग की दोनों ओर धूप से भरे हुए दो कला ( घड़े) रखे हुए थे और उनके घुमकी सुगन्धिसे आकाश का वायुमण्डल सुगन्धित हो रहा था। इस मार्ग से कुछ दूर आगे जाने पर चार उद्यान वाटिकाएं बनी हुई थीं। इनमें सम्पूर्ण ऋतुओंके फल पुष्प सदैव लगे रहते थे। इसलिए दूसरे चार नन्दन वन ही जान पड़ते थे । उन उपवन वीक्षियों (गलियां) बनी हुई थीं। उनमें अशोक, सप्तपर्ण, चम्पा एवं आम्रवृक्षको चार चार क्रमशः बनी इनके वृक्ष समूह बहुत ऊंच ऊंचे थे । उन उपवनोंके बीच चीन में त्रिकोण एवं चतुष्कोण वापियां (बावड़ियां बनी हुई थीं और बावड़ियों में सुन्दर सुन्दर कमल सुशोभित थे । इनके अतिरिक्त कहीं नयनाभिराम राज प्रासार था, कहीं कोड़ा-गृह या कहीं कौतुक मण्डप था, कहीं आकर्षक चित्रशालाएं थीं, कहीं कृत्रिम ( चनावटी ) पर्वत श्र ेणियां और कहीं बाहर के विचित्र दृश्यों को देखने के लिये
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