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गायै गीत सुरनको तिया, जिनगुण लीन हरष कर हिया । व्यन्तर देव जु गावं खड़े, विनयहीन को रोकत अड़े रहा यह शोभा पहले गढ़ जान, और सुनों आगे परवान। गोपुरते बीथी दिश चार, चली फेर भीतर विस्तार 11 चह ओर नतशाला तास, चारह दिश की बीथी पास । कंचन थम रतन कर खचे, ध्वजा छत्र ता ऊपर रचे ॥१०॥ नाचं देवकूमारी एम, मानों उदधि तरंगिन जेम । मंद मंद मुख बिकसं जबै, जिनगुण गीत उच्चरे सर्व ॥१०॥ बाजे मधुर बीन बांसुरी, ताल मृदंग मधुर ध्वनि जुरी । अब कछु बीथो अन्तर जान, बरै धूप घट चहुं दिश मान ।।१०३॥
दोहा
धुप धुआं नभको चलौ, श्यामवरन अति जान । मानों पातक भग चले, पुण्यतनों डर मान ।।१०४||
चौपाई
विदिशन और सुनो भविसार, बाग चार नन्दनवन वार | प्रथम प्रशोक सप्तपरनाहि, चम्पक पाम्रमही रह जाहि ।।१०५॥ सब ऋतुके फल फूल अपार, विरख बेल सौं मण्डित सार। चार चार वापी जु मनोग, सोहै नंदादिक जल जोग ।।१०।। हैं त्रिकोण कोई चऊकौन, कोई गिरदाकारहि जोन । तहं आवें भविजन मन हर्ष, कारण धर्म मनोगहि पर्ष ॥१०॥ कोई करने क्रीड़ा प्राय, कोई अंग प्रछालन जाय 1 अशोक बाग के मध्यम भाग, पोठ त्रिमेखल है बड़भाग ।।१०।
गगन चम्बी (बहुत ऊंची) अट्टालिकाएं बनी हुई थी। एक मंजिले और दो मंजिले मकानोंकी भी क्रमबद्ध पंक्तियां (कतार बनी थी उन उपवनोंकी प्रथम प्रशोक-वन-वीछामें सुवर्णकी बनी हुई तीन कटनीदार ऊंची एवं मनोहर वेदिका बनी हुई थी और उस सन्दर वैदिका पर एक अशोक चैत्यवक्ष था । वह तीन परकोटों से घिरा हुआ था और प्रत्येक परकोटमें चार चार द्वार थे। उस
शोक चैत्यवक्षके ऊपर बजने वाले घण्टे से युक्त तीन सुन्दर छत्र टंगे हुए थे। वह वृक्ष देव पूजित जिन प्रतिमानोंसे तथा ध्वज चमर एवं मंगल द्रव्य इत्यादिसे सुशोभित ऊंचा होनेके कारण जम्बू-वृक्षके समान जान पड़ता था। चैत्यवृक्ष को जड़के पास चारों जिनेन्द्र देबकी पवित्र प्रतिमाएं। सुरेन्द्र अपनी पुण्य प्राप्तिकी इच्छासे मनोज्ञ द्रव्योंसे उन प्रतिमानों को सदैव पूजा किया करते थे। इसी प्रकार सप्तपर्ण चम्मक एव प्रामवृक्षके तीनों बनोंमें भी ऐसे ही सुन्दर चत्यवृक्ष थे। अहंतकी प्रतिमानोंसे विभूषित होने के कारण देवता लोग उन चत्ववृक्षोंकी पूजा किया करते थे । वहां माला, वस्त्र, मोर, कमल, हंस, गरुड़, सिंह, बैल, हाथी एवं च इत्यादि दस प्रकारको अत्यन्त ऊचो ध्वजा पताकाएं सुशोभित हो रहो थीं। बे ध्वजाए ऐसी जान पड़तो थीं मानो प्रभुने मोहनीय कमोको जीतकर सम्पूर्ण जगतके ऐश्वर्यको एकत्रित कर लिया है। प्रत्येक दिशामें पृथक पृथक प्रत्येक चिह्नवालो १०० एकसौ माट माठ ध्वजाएं थी। प्राकाशरूपी समुद्रको तरंगों के समान जान पड़तो थीं। जबकि इन ध्वजानों में वायुके वेगसे कम्प एवं बनि आ जाती थी तब ऐसा जान पड़ता था सब भव्य जीवों को भगवान की पूजा करने बुला रही हो । माला चिह्न वालो ध्वजारों में सन्दर शुरभित एवं कोमल पुष्पोंकी मनोहर मालाएं लटक रहीं थीं। वस्र चिन्हवाला ध्वजामों में एकदम महोन (पतले) बस लटक रहे थे। मयूर (मार) चिन्ह वाली तथा अन्यान्य चिन्ह वाली ध्वजामों में भी चतूर देव शिल्पियों के द्वारामारी सुन्दर मुर्तियां लगी हुई थीं। पूर्वोक्त सम्पूर्ण चिह्न बालो ध्वजारों को सम्मिलित संख्या एक दिशा में १.५० एक बार प्रस्सी और चारों दिशामोंकी सम्मिलित संख्या ४३२० चार हजार तीन सौ बीस थो। उस चत्यवृक्ष से आगे बढ़ने पर भोत रो भाग में एक दसरा चांदी का परकोटा बना हुआ था। इस चांदीके परकोटे का निर्माण, बनाबट आकार प्रकार और सजावट सगो को प्रथम परकोटे के ही समान थी दरवाजे भी थे। और उसी तरहक रत्न तोरण नवनिधियां सम्पूर्ण मंगल द्रव्य एवं मार्गके दोनों मोर धपसे भरे हए दो घड़े रखे हुए थे जो स्वयं अपनी सुरभि वायु मण्डलको सुगन्धि से वश में कर रहा था। नाटयशाला की वितियां भी पूर्ववत ही थी। नत्य गान बाध रूपी एक जैसे थे। इसके बाद और आगे जाने पर उसी मार्गके पासमें
। वे विविध रत्नोंकी जगमगाहट से अत्यन्त शोभायमान दोख पड़ते थे। कल्पवृक्ष की अनेक उत्तम विपल विभतियां किसी महान राजाकी विभूतियोंसे कम न थी। माला, वस्त्र, रत्न, ग्राभूषण दिव्य फल पुष्प एवं शीतल छाया इत्यादि दलभ बिसियोंसे वह युक्त था। वे दस प्रकारक थे। इन दस विविध कल्प वृक्षोंको देखकर यह सहज हो में जाना जा सकता