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वन प्रति का वन वेदी हैं नार, चामीकर भय बनी सुठार ता ऊपर प्रतिमा जिनराम सुरपति पूजे उर हरणाय फिर ध्वज वंभीयत जुसार, पुरवयत जानी सविचार अब तिनके कछु आगे जान, फटिक फोट ही कहे प्रमान चन्द्रकान्तमणि ग्राभा कह्यो, सुवरणमयी थंभ तह लह्यो ध्वजा छत्रपष्ट छविचार निद्रा समन अधिकार
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दोहा
मानथंभ ध्वज थंभ गढ़, बेबी तो रन तूप जिन तन तें बारह गुर्ने, महल वृक्ष जुत रूप ॥ १३५॥
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चौपाई
फटक गई निर्मत नभचार प्रति उन सो मिराकार बस्न वरन मग निर्मल द्वार ||३६|| चमर छत्र घण्टा जुत कहे। सब शोभा पुरववत जान ठाडे सुरंग देव दरवान ॥१३७॥ उपमा रहित जु दी सबै अब सुन मध्य भूमिकी कथा, फटिक कोट के भीतर जथा ।। १३८॥ गढ़ तं प्रथम पीठ सौं लगी, फटिक भींत सोलहि जगमगी। रतन थंभ तिहिपर छबि वान, तिनको दीपति तं सम हान ||१३||
भींतन बीच जु कोठा जेह, बारह सभा तहां सुन लेह || १४० || कोठा प्रथम मुनीश्वर सेव दूजे कल्पवासिनी देव ।। १४१|| पंचम व्यन्तरसी लिये कही भवनवासिनी में सही १४२॥
आगे तृतीय कोट प्रचार चारों दिश गोपुर बन रहे देखत ताहि सफल द्रग जबै
ता रतन हि विधि व सकल संपदा
च फेर मानो नखत उसे शशि पेर ।।१२ विदिशा परमान, पूरवक्त सब वर्णन [जान ।। १३०॥ है वास को बुध कहद लहै ना साँस ।।१३१।। प्रति विचित्र है महल मनोग, रतन कूट ताप है जोग ।। १३२ ।। बीथी अन्तर सुभग सरूप, पद्मराग मणिमय धन रूप ॥१३३॥ बाजे साढ़े बारह कोट, बजे मधुर ध्वनि दुभि जोट ॥१३४॥१
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तिहि पर श्री मंडा सुर रची, फटिक मई मानौं नभ खच । यह दिया दरवाजे पथ रहे, बीच बीच जय जय तह कहे ती अeिr wee जान चौथे क्योतिष पिया बखान
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सातम भवनपति सुर लेख, ग्राम व्यन्तर कहे विशेख | नवमें कोठा ज्योतिष देव, दशमैं कल्पवासि सुर तेव ।। १४३॥
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निराबाध तिहूं जग के जीव भोर नही तह होय तीव ।। १४४।। तिरतं प्रथम पीठ गुनवार, सूरज मणिमय परिकार । १४५।। बारह सभा गली जे चार, तिनको ये सोलह पथ धार ।। १४६ ||
एकादशम मनुष परवान, द्वादश में पशु सकल बसान त्रिभुवनपति अतिशय यह जान, बागे और सुनों गतिवान नील वरण मणीमयी विशाल, सोलह पेंडि चहुंदिश साल
राज प्रसाद एवं पर्वतों की ऊंचाई को भी इसी के अनुपात से समझना होगा । इस प्रकार द्वादशांग के पढ़ने वाले गणधर देव ने कहा पर्वत ऊंचाई ने चौड़े और स्तूप ऊंचाई से कुछ अधिक मोटे हैं। तत्त्ववेत्ता देवताओं के द्वारा पूजित गणधर देवने वेदिका इत्पादिकी चौड़ाई ऊंचाईको अपेक्षा चौथाई कही। उन्हीं के बीच-बीच में कहीं पर जन-भरी बहती हुई नदियों, कहीं बावली कहीं रेतीली जमीन और विशाल सभा मण्डप बने हुए थे। बनके विशाल राजमार्ग पर जी स्वयं वेदिका बनी हुई थी, उसमें सुन्दर सुन्दर चार दरवाजे बने हुए थे। इनमें भी रत्न- तोरण, ग्राठ मंगल द्रव्य एवं आभूषण आदि वैभव तथा नृत्य, वाद्य एवं गान इत्यादि पूर्व कथित द्वारोंके जैसे विद्यमान थे। इन सबके बाद एक अत्यन्त विशद् एक गली थी जिसे चतुर देव शिल्पियोंने बनाया था। इस वली के दोनों बगल पंक्तियां बनी हुई थीं। इन भवनोंमें हीरक जटिल स्वर्ण-रम्भ थे और चन्द्रकान्त मणि की दीवार बनी हुई थी। बीच-बीच में अनेक बहुमूल्य महारत्न जड़े हुए थे इसलिए उनकी शोभा एकदम विचित्र थी। उनकी जम मगाहटको देखकर पायें चौंधिया जानी थीं। उन दुमंजिले एवं चौमंजिने दिव्य-ग्रासादोंपर बाह्य दृश्यों को देखनेके लिए मट्टालि काएं (बटारियां बनी हुई थीं। सम्पूर्ण सुख-सामग्रियों का उन भव्य भवनों में सन्निवेश था, अतः अनेकों देव गन्धयों के साथ कल्पवासी व्यन्तर ज्योतिषी विद्याधर भवनवासी एवं किन्नर वृन्द प्रति दिन उन महलों में देव क्रीड़ा करते रहते थे। उन लोगों में से कोई तो जिनेन्द्र प्रभुके गुण गौरवको गाते, कोई उत्पाद पूर्ण नृत्य करते और कोई विविध वाको बजाकर भगवान की सेवा में तत्पर रहते थे । धार्मिक विषयोंकी चर्चा भी वहां ग्रहनिश होती ही रहती थी ।
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