________________
दोहा
इहि प्रकार बहु देवपति, शची सहित आनन्द । जिनपूजा अस्तुति करन, बाढ़ यो आनन्द कंद ।।७२।। नर नारी जुत नरपति अरु मगेन्द्र पशु एव । सब शतेन्द्र निज विभव लें, आये जिनवर सेक ।।७३||
अथ समवसरण रचना वर्णन
चौपाई सुरपति लीनौ धनद बुलाय, केवल उत्सव सफल सुनाय । आरजखण्ड जाउ अब वग, समोशरण विधि रत्रों मनेग ।।७४।। हर्षवंत हो नायौ माथ, पायौ जहां त्रिलोकी नाथ । प्रथमहिं नमस्कार प्रभु कियो, समाधान कर अपनी हियों ।।७।। समोशरण रचियो जु अपार, को बधवंत लहै कहि पार । अवसर पाय धर्म मन ध्यान, किमपि लिखौं अानंद उर प्रान ॥७६।। कोश अढ़ाई ऊर्ध्व अकास, पृथ्वीते जह ली प्रभुवास । इन्द्रनील मणिमय पीठिका, तीनलोक की उसमानिका ॥७॥ जोजन एक ताहि विस्तार, याठी दिश सो गिरदाकार । जाको पहंदिश मणिमय सार, लगी पंडिका बीस हजार ॥७ हाथ हाथ पै ऊंची लसै, भूमि भाग ते प्रभु तह बसै । वही पीठके ऊपर अन्त, धूलीसाल कोट शोभंत सका। पंच रतनमय रज सरवंग, विविध वर्ण शोभे मन रंग । अति उतंग सो बलयाकार, फैल रही किरणावलि सार ||०॥ कई विद्र मबत दीसं सोय, कई कननमय प्राभा होय। कई प्रजनमय शोभा जान, कहुं उज्वल क हरित प्रमान ||शा समोशरण लक्ष्मीको धेर, मनोज्ञ एक कुडलो फेर। चारी दिश दरवाजे चार, वर कंचुरा रतन सुहार | तहं ते चारों दिशको गलो, गमन हेतु भीतर को चली। ताके अन्तर कछू प्रभान, मानभूमि सोहत तिहि थान ||३|| तिनको प्रथम पीठिका जान, सौरह पैडी मत मान । इक सम्बन्धो तोन जू कोट, चार चार दरवाजे प्रोट ।।४।। भीतर पीठ त्रिमेखल जान, तापर मानस्थंभ परिमान । कंचनमय शोभ उत्तंग, मध्य भाग महिमा निरभंग ॥५॥
तरफ धलशाल नामका परकोट रत्नों की धुलि से बनाया गया था । कहीं मगे का रंग, कहीं सोने का रंग, कहीं काला रंग कहीं हरा रंग, कहीं इन्द्र धनुष जैसा मिश्रित रंग सुशोभित हो रहा था उसको चारों दिशाओं में सोने के खम्भे लगे हए थे । वे सब रस्ता को लटकती हुई सुन्दर मालाओं से सुशोभित थे। उसके भीतर कुछ दूर जाकर चार वेदियो थों, जिनमें पूजाको सामग्री समोभित थी उनमें चार दरवाजे लग रहे थे। तीन परकोटों से युक्त शेर १६ सोनेको सीढ़ियां लगी हुई थी। उसके बीच में जिनेन्द्रको निमा सहित सिंहासन थे। वे सब रत्नों के तेज से बैदीप्यमान थे । उनके बीच में चार छोटे २ सिंहासन थे उनदियों के बोचोंबीन चार मानस्थंभ थे। उनके देखने मात्र से मिथ्यादष्टियों का मान भंग हा जाला था। वे मानस्थंभ स्वर्णके बने हा थे और ध्वजा घंटामोसे सशोभित थे उनके ऊपरी भाग में जिनेन्द्रको प्रतिमाय थीं। उनके पासको जमीन पर चार वाडियां कमलोंगे सुशोभित बोलावड़ियों में रत्नों की सीढियां लगी थों जिससे उनकी सन्दरता और भी बढ़ गई थी। उन बावड़ियों के नाम नन्दायरा प्रादि थे। उन वावड़ियों के किनारे पर जलसे भरे हुए कुछ थे जो कि यात्रा को आये हुए जीवांका थकावट दूर करने के लिए पर चलाने का काम करती थी। वहां से आगे जाने पर जलकी भरी हुई खाई थी। उनमें कमल फल रहे थे तथा उन कमलों पर भ्रमर सदैव गजार किया करते थे। हवा के धक्को से उस खाई में जो तरंगें उठती थीं और उस समय जो शब्द होता था उससे गाडी जान होता था कि वह तरंगें भी भगवानके ज्ञान कल्याणकका गुण-गान कर रहीं हैं उस खाई को पृथ्वो भाग छह ऋतुअांके पल फलोंसे संशोभित था। वहां पर देव और देवियों के लिए सुन्दर कोड़ा स्थानों के कज बने हुए थे। चन्द्रमांत मणिकी शातल भिलायें जिस जगह रखी हई थी वहां इन्द्र विश्राम करते थे, वहाँका पर्वत फल फलों से भरा हुमा अशोक प्रादि महान वक्षों सहित भौरों की गजारसे प्रत्यन्त शोभायमान हो रहा था। उसके थोड़े ही मागे सोनका १ परकोट था वह बहुत ऊंचा था उसमें चारों तरफ मोतियोंका जड़ाव था। उनको देखकर यही ज्ञान होता था मानों तारे ही चमक रहे हों। उस परकोट को देखने से कहीं मंगा की तरह रंगकी कांति कहीं वादल की रंगत की तरह कहीं नाले रत्न की कांतिके समान और कहीं इन्द्रधना की तरह नाना रंगोंसे वह शोभायमान हो रहा था । यह परकोट हाथी व्याघ्र मोर और मनुष्यों के स्त्री पुरुषों के जोडों सहित बलों के