________________
प्रभको देख वैर निज मान, किय उपसर्ग ततक्षण आन । बलविद्या प्रारम्भन कियौ, अति विकराल रूप धर लियौ ।। ३३७॥ छिनक थल छिन सूक्षम होय, छिन रोवै छिन गाव सोय । नत्र अरु दन्त बढ़ाये घने, मुख ज्वाला नहि देखत बने ॥३३॥ वीरनाथ जिन मेरु समान, चित अडोल अति धीरजवान । तब शठ और उपद्रव ठान, धरौ सिंह सम रूप भयान ।।३३।। तरतराय गरज मधिकार, निज निज हस्त शस्त्र विकरार । फिर फणीन्द्र को रूप कराय, जित तित ब्याल रहै फन छाय ।।३४०॥ पूनि कीनी सेना अधिकार, निज आयुध धारी रनसार । मारु मारु मुखत उच्चरै, कायर नर देनत ही मर ॥३४१।। Gभ निज आतम में लवलीन, पापी पाप आपको कोन । प्रलय पवन जो अतिबल करें, मेरु मही नहि टारे टरै ।।३४२।।
शायी होगी। ऐसा सोचकर उस सेठानीने चन्दनाके उत्तम रूपको बिगाड़ डालने की इच्छासे पुराने कोदोका भात मिट्टी के बर्तन में रखकर उसको प्रतिदिन देना प्रारम्भ किया । खिला चुकने के बाद वह चन्दना को लोहे को सांकड़से बांध दिया करती थी। परन्त इस दारुण यन्त्रणा में भी चन्दना के मन में किसी प्रकार का विकार नहीं उत्पन्न हुआ और अपने धर्म कर्म पर बढ़ रही। यह कौशाम्बी नगरीकी बात है।
किसी एक दिन वत्स देशके उसी कौशाम्बी नगरीमें राग शून्य महावीर प्रभु काय की स्थिरता के लिये प्राहार-ग्रहण
भोक विष मरे सर्प, बिमल, कानखजूरे ग्रादि उनके नग्न शरीर से निपटा दिये, परन्तु बीर स्वामी ने तो पहले से ही अपने शरीर से माह हटा भावावा. जब चण्डकौशिक जैसा भवानक अजगरों का सम्राट ही उनके तेप को न डिगा सका तो भला इन सनों, बिच्छ ओं, कानखजूरों में क्या शक्ति श्री कि वे वीर स्वामी के ध्यान को भंग कर सका वीरतो महावीर थे, इसने भान जपसों पर भी वीर स्वामी की धीरता मोरया करता सात मंदा और सहनशकित को देखकर विचार करा लगा कि वीर स्वामी में मेरी मायामयी दाक्ति को पछाडने की अदभुत शक्ति होने पर भी ममें परीक्षा का पूरा अवसर दिया । मनुष्य तो क्या देवताओं की भी मजाल न था। मेरे अत्याचारों के सामने कर सकते महान तपस्वी और आस्मिक बोर को बिना कारण कष्ट देकर अपनी नरक की आयु बांध ली, उसने विनपर्व भक्ति से हर साल किया और कहा कि इन्द्र महाराज के शब्द वास्तव में सत्य हैं। वीर स्वामी धीर ही नहीं, बल्कि 'अतिवीर' हैं।
१-विषधर सर्प : अमृतधर देव
श्री बर्द्धमान महावीर एक भयानक जंगल की ओर सिंह के समान निर्भय होकर बिहार कर रहे थे, कि कुछ लोगों ने कहा-"यहां से थोड़ी दूर झाड़ियों में चण्टकौशिक नाम का एक बहुत भयानक नागराज रहता है। उसकी एक ही फुकार में दूर-दुर के जीव मर जाते हैं, इसलिए इस ओर न जाइये" । वे न रुके और चण्डकौशिक के स्थान पर ही ध्यान लगा दिया। चण्डकौशिक फुकार मारता हुआ बाहर आया तो महाँ दूरदूर के वृक्ष तक उसकी फुकार से सूख गए वीर स्वामी पर कुछ प्रभाव होता न देखकर चण्डकौशिक आश्चर्य करने लगा यौर अपनी कमजोरी पर क्रोध खाकर उनकी तरफ फना करके सम्पूर्ण शक्ति से फुकार मारी. परन्तु बीर स्वामी बदस्तूर ध्यान में मग्न खड़े रहे। चण्डकौशिक अपनी जबरदस्त हार को अनुभव करके कोष से तिल-मिला उठा, और पूरे जोर से वीर स्वामी के पैर में डंक मारा । वीर स्वामी के चरणों में दूध जैसी सफेद धारा निकली, परन्तु वह ध्यान में लीन खड़े रहे। चण्ड कौशिक हैरान था कि मुझ से भी बलवान आज मेरी शक्ति का इम्तिहान करने मेरे ही स्थान पर कौन आया है ? वह बीर स्वामी के चेहरे की ओर देखने लगा, उनकी शान मुद्रा और वीतरागता का चण्डकौशिक पर इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि उसके हृदय में एक प्रकार की हलचल सो मच गयो । वह सोच में पड़ गया कि इन्होंने मेरा क्या बिगाड़ किया, जो ऐगे महा-तपस्वी को भी कष्ट दिया । मैंने अपने एक जीवन में लाखों नहीं, करोड़ों के जीवन नष्ट कर दिये । मैं बड़ा अपराधी है, पापी है। ऐसा विचार करते करते उसका हृदय कोप उठा और श्रद्धा से अपना मस्तक वीर स्वामी के चरणों में देकसा हुआ बोला-"प्रभो! क्षमा कीजिये, मैने आपको पहिचाना न अपने आपको" । वीर स्वामी तो पर्वत के समान निचल, समुद्र के समान गम्भीर, पथ्वी के समान क्षमावान थे, उपसगों को पाप कमों का फल जानकर सरल स्वभाव सहन करते थे और उपसर्ग करने वालों को कमों की निर्जत करने-वाला महामित्र रामभते थे 1 चनकौशिव के उपसर्ग का उनको न खेद था न क्षमा मांगने का हषं । उनकी उदारता से प्रभावित होकर नागराज ने प्रतिज्ञा करली कि मैं किसी को बाधा न दंगा। उसका जीवन विलकल बदल चुका था। जहर की जगह अमृत ने ले ली थी। लोग हैरान थे कि जिस वण्डकौशिक वा जान से मारने के लिए देश दीवाना हो रहा था, वह आज उसको दूध पिला रहा है । यह तो हैं थी वर्द्धमान महानी के जीवन का केवल एक दरटान्त, उन्होंने ऐसे अनेकों पापियों का उद्धार किया।