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चन्दना सतीकी कथा
चौपाई
बनवासी विहरत भगवान, कथा और अब सुनहु सुजान । सिद्ध देश विशाल पुर सार, चेटक नाम नृपति गुण भार ।।३५४॥ तिनके सात सुता ऊपनी, प्रथमहि त्रिशला मात जिन तनी। दुनी ज्येष्ठा रुद्रहि माय, तृतीय चेलना श्रेणिक लाय ।।३५५।। चौथी मशक पूर्व जननीय, पंचमि सुता चन्द्रमा प्रीय । रूपवंत रतितै अधिकार, शोल शिरोमणि गुण अधिकार ।।३५६।। सो सब जो मैं वर्णन करौं, होय अवार पार नहिं धरौं। एक समय वन क्रीड़ा गई, कामातुर खगपति हर लई ।।३५७।। ता पीछे चिंत्यो सब सोइ, निज त्रियको भय कंपित हो । ताको छोड़ महा उद्यान, खगपति गयो आपने थान ।।३५८।।
बातको भी अनायास ही कर दिखाता है। निस्सन्देह इसके द्वारा सभी तरह की मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं । इसके बाद उसने प्रसन्नता पूर्वक पुण्यरूप नव प्रकार की भक्तियों के साथ महावीर प्रभुको माहार दान दिया । तत्क्षणोपाजित आहार दानरूपी महापुण्यके प्रताप से उस सती चन्दनाको रत्न वर्षा, पांच पाश्चर्यप्रद बस्तुएं एवं निज पारिवारिक कुटुम्ब प्राप्त हुए, देखो श्रेष्ठ दान से क्या नहीं मिलता? सभी वस्तुएं दान के प्रभाव से हाथ में आ जाती हैं। इस उत्तम दान के प्रभाव से उस चन्दना का निर्मल यश सम्पूर्ण संसार में फैल गया और वान्धवमिलन भी हो गया। - . .--- देखकर एक वेश्या ने चन्दना जी को अपने काम की बस्तु जानकर दो हजार अशफियों में मोल ले ली। चन्दता जी ने पूछा, माता जी आप कौन है ? मुझ दुखिया को इतना अधिक मूल्य देकर क्यों खरीदा ? वेश्या ने उत्तर दिया- "चन्दना ! तू चिन्ता न कर, अब तेरी ममीबतों के दिन समाप्त हो गए। मैं तुझे सर रोपांबी तक सोने और हीरे-जवाहरातों से लाद दूंगी। स्वादिष्ट भोजन और सुन्दर वस्त्र पहनने को दूंगी।" चन्दना जी उसकी बातों को परल गई और उसके साथ जाने से इन्कार कर दिया। वेश्या जबरदस्ती चन्दनाजी को घसीटने लगी, कि त मेरी दासी है। मैंने तुझे दो हजार अशफियों में खरीदा है । इस स्त्रींचातानी में अनेक लोगों की भीड़ वहां हो गई। उसो भीड़ में से एक नौजवान आगे बढ़ा और वेश्या को अशफियों को दो लियां देकर दोला-'खबरदार ! इस महासती से अपने नापाक हाथ मत लगाना"। और बड़े मीट दाब्दों में चन्दना जी से कहा कि तुम मेरी धर्म की पुत्री हो, मेरे साथ मेरे मकान पर चलो।
ये उपकारी नौजवान कौशाम्बी नगरी के प्रसिद्ध सेठ वृषभसेन थे, जी बड़े धर्मात्मा और सज्जन थे। सेठजी दूसरी दासियों से अधिक चन्दनाजी का ध्यान रखते थे । चन्दनाजी सेठजी की स्त्री से भी अधिक रूपवती, गुणवती और बुद्धिमती थी। यह देखकर उनकी स्त्री यानि से जलने लगी और भूठा कलंक लगाकर उसके अतिसुन्दर, काली नागिन के समान बालों को कटवा कर सिर मण्डवा दिया और बन्दीखाने में डाल दिया । स्त्राने को कोदों के दाने देने लगी । ऐसी दुरखी दशा को भी चन्दना जी पहले पाप कर्मों का फल जानकर बिना किसी खेद के प्रसन्न चित्त होकर सहन करती थी और विचार करती थी कि संसार में कुरूप स्त्रियां अपने आपको भाग्यहीन समझती हैं, परन्तु मैं तो यह अनुभव कर रही है कि यह रूप महादुःखों की खान है। जिसके कारण मैं अपने माता-पिता से जुदा हुई और यह कष्ट उठा रही है।
सारा देश महादःख अनुभव कर रहा था कि छः मास हो गये थी वर्द्धमान महावीर का आहार-जल नहीं हुआ, चन्दनाजी रह-रहकर विचारती थी कि यदि में स्वतन्त्र होती तो अवश्य उनके आहार का यत्न करती, मैं बड़ी अभागिनी हूँ कि मेरे इस नगर में होते वीर स्वामी जैसे महामुनि छः महीने तक बिना आहार-जल के रहै ? चन्दना जी को बही कोंदों के दाने भोजन के लिए मिले तो उन्होंने यह कहकर कि जब श्री वीर स्वामी ने आहार नहीं हुआ तो मैं क्यों कुरू ? उनको रखने के लिए प्रांगन में आई तो बीर स्वामी की जय जयकार के शब्द मुने, दरबाजे की तरफ लपकी लो बीर स्वामी को सामने आते देखकर पउगाहने को खड़ी हो गई, भगवान को भरे नयन देख, भूल गई वह इस बात को कि मैं दासी है और उसने भगवान को पड़गाह ही लिया। पुण्य के प्रभाव से कोदों के दाने खीर हो गये, निरन्तराय आहार हुआ । स्वर्ग के देवों ने पंचाश्चर्य करके हर्ष मनाया। लोगों ने कहा, “धन्य है पतितपावन भगवान महावीर को जिन्होंने दलित कुमारी का उद्धार किया । धन्य है सेट वृषभसेन को जिन्होंने वावजूद इस प्रधानता के किसी दूसरे घर में जबरदस्ती रही हुई स्त्री को आश्रय न दो, कुरीतियों से न दवकार उन्होंने चन्दना जी को शरण दी और वे लोकमूढ़ता में नहीं बहे ।"
राजा तथा बड़े-बड़े सेठ और सेट वृषभसेन स्वयं महीनों से ललचाई आंखों से धीर स्वामी के आहार के निमित्त पडगाहने को खड़े रहे, परन्तु भगवान् ती लोककल्याण के लिये गोगी हुए थे। उन्होंने अपने उदाहरण से लोक को यह पाठ पढ़ाया कि वह पतित से घृणा न करे,