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चौपाई
सप्त अस्ट नवमे गुण थान, तीन करण कीने भगवान । प्रथम जघन मध्यम उत्कृष्ट, चारित करत यही त्रय सप्ट ॥३६॥
पद्धडि छन्द
प्रय शुकल ध्यान आयुद्ध लीन, अष्टम गुणथानक पाय दीन । तहं क्षपक श्रेणि प्रारूढ़ होय, करम शत्रु क्षय करहिं सोय ॥३९३।। नबमैं गुणथानक चढ़िव जोर, छतीस प्रकृति खिपि दई घोर । सो प्रथम भाग सोरह क्षिपाय, प्रचला प्रचला नहिं उर सुहाय ।।३६४|| निद्रा निद्रा प्रस्त्यानगृद्धि, बादर सूक्ष्म उद्योत वृद्धि । साधारण अरु पाताप भांति, एकेन्द्रिय द्वय त्रय चतुरजाति ॥३६५|| गति नरक और तिरयंच होइ, इन सहित पूरवी कही दोय 1 तिहि दूजे भाग सुखिपा आठ, प्रत्याख्यानअप्रत्याख्यान गांठ ॥३६६॥ जुत क्रोध मान माया रु लोभ, तीज जु नपुसकवेद भोभ । चौथे खिपि अस्त्री वेद जोग, पांचमैं हास्य रति अरति जोत ॥३९७।। भय सहित दुगंछा छहौं जोइ, षष्ठ में भाग पुदेव सोइ । सप्तमै संज्वलन क्रोध जान, अष्टमै भाग संज्वलन थान 1॥३६॥ नवमै जु भाग माया विनास, ए कहीं प्रकृति छत्तीस भास । दशमें गुणथानक सूक्ष्म लोभ, इहि विधि अरि घाते हृदय क्षोभ ॥३६॥ प्रभु पूरयौ दूजौ शुक्लध्यान, तव चहै बार, गुणस्थान । तब चूरी सोरह प्रकृति भाग, निद्रा प्रचला दुइ प्रथम भाग 11४००। प्रब दुतिय भाग चौबीस नास, हनि ज्ञानावरणी पंच भास । मतिश्रुत जु अवधि ये तीन जान, मनपर्यय केवल ज्ञान चान ॥४०१॥ अब दरशन वरती प्रकृति चार, चल अचखु अवधि केवल विचार । खिपि अन्तराय वीरज सजोग, अरु दान लाभ भोगोपभोग ।।
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अडिल्ल
ज्ञानावरनी पंच प्रकृति जुत सो हनी, दरशनको नव घात अठाइस मोहनी। अन्तराय है पंच सबै सैताल ये, आयु करमके तीन नाम तेरह गये ।।४०३॥
दोहा एक सब वेसठ प्रकृति हनि, प्रबल घातिया कर्म। रही अघातिनि चारकी, प्रकृति पचासी नर्म ॥४०४||
एक तहों को छेद दिया जाता है उसी तरह प्रभु ने इस कार्यको किया। वे बारहवें गुण-स्थानके अन्त में तिरेसठ प्रकृतियोंका नाश करके तेरहवें गुण-स्थान को प्राप्त हुए और उसी में उन्होंने उस अत्यन्त उत्तम केबल ज्ञान को प्राप्त किया जो अनन्त है, लोक अलोक के स्वरूपका प्रकाशक है, अपरिमेय महिमा शाली है और अक्षय मोक्ष राज्य को देनेवाला है।
जिनेन्द्र श्री महावीर प्रभुने वैशाख शुल्क दशमी के दिन सायकाल के समय हस्त एवं उत्तरा नक्षत्र के मध्य में शुभ चन्द्र योग होने पर मोक्ष प्रदाता क्षायिक सम्यक्त्व, यथास्यात संयम (चारित्र) अनन्त केवल ज्ञान, केवल दर्शन, क्षायिकदान, लाभ के भोग, उपभोग, एवं क्षायिक वीर्य इन श्रेष्ठ नौ क्षायिक लब्धियों को स्वीकृत किया। इस प्रकार जब महावीर स्वामी ने पाति कर्मरूपी महाशत्रुओं को जीत लिया और केवल झानरूपी अलभ्य सम्पत्ति को पा लिया तब आकाश से देव लोग जय-जयकार करने लगे एवं वहीं दुन्दुभि इत्यादि नाना प्रकार के मनोहर बाजे बजाने लग गये। अनेक देवों के विमान-समूह से सारा प्रकाश मण्डल ढक सा गया । अजस्र पुष्प वर्षा होने लगी। इन्द्र के साथ सब देवों ने महावीर स्वामी को श्रद्धाभक्ति पूर्वक प्रणाम किया ।
आठों दिशाएं और आकाश एकदम निर्मल हो गये। शीतल, मन्द, सुगन्ध हवा बहने लगी, इन्द्रासन कंपित होने लगा। इसी समय यक्षराज कुबेर महावीर प्रभुके अनुपमेय गुणों से मुग्ध एवं भक्तिवश होकर उनके समवसरणके उपयुक्त महा संपदा की रचना में प्रवृत्त हा । जिस महावीर प्रभु ने घाति कर्मरूपी शत्रुओं को नष्ट करके अनन्त एवं अनुपम क्षायिक गुणों को पा लिया है और सम्पूर्ण भव्य जीवोंको परम आनन्द प्रदान करते हुए केवल ज्ञानरूपी उत्तम राज्य को स्वीकृत किया है और जो भव्य