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परिषों के निमित्त कारणका वर्णन
सर्वया इकतीसा
ज्ञानावरणी कर्म उदय प्रज्ञा अज्ञान दोह, दरशनावरण तें अदर्शन बखानिये । अन्तराय के परकाश उपजं श्रलाभ जास, बरनी चरित्र मोह सातों ठीक ठानिये ।। नगन निपद्या रति प्रस्त्री कोश जाचना जु, सतकार पुरस्कार ग्यारा अब जानिये । ग्यारा और बाकी रही वेदनी उदोत कही, बाईस परीषा सब ऐसी विधि मानिये || ३१५ ।। किस अवस्था में कितने परीषह उदय भावें ? इसका उत्तर वीतराग देव छदमस्थ पर्ने जोग और सूक्ष्म सांपराय क्षुधा तृषा शीत उष्ण दंश मशक चरजा, सेज्या सन बंध तृणस्पर्श मल स्पर्श प्रज्ञा एहि चतुर्दश, परीषद् कहूं सबै मुनि उपशमगुणस्थान ताही लग, बाईस परोषा उदे चारिततें कही हैं ।। ३१६ || एक मुनिके एक कालमें कितने परीषह हो सकते हैं ? इसका उत्तर
और गुणस्थान जहीं हैं । रु अलाभ रोग सही हैं । करम जोगतें नही हैं ।
दोहा
जो काहू- मुनिराज को, उदय होंय सब जाय । तामें तीन न पाइये, उनविंशति दुखदाय ||३१७|| शीत होय तो उषण न उष्ण होय तो शीत । वर्या चयन निषेध त्रय, तिनमें दोय सहीत ॥३१८ ॥ व्रत कथा उत्तरगुणों का वर्णन
चौपाई
पंच महाव्रत भावें जहां प्रतीवार सब नाशे तहां पंच समिति पालें, निर्दोष, तीन गुप्सिको कीनी पोष ।। ३१६ ॥ चौरासी लाख उत्तर गुणों का वर्णन
उत्तर गुण साधें निरभंग, लख चौरासी ताके अंग पाचों प्रव्रत चार कषाय, रति धारति विदगंछा पराय || ३२० ॥ भव मद मिथ्या तह श्रज्ञान, मन वच काय दुष्ट श्रर मान घरं विशुनता और प्रमाद, ये इक्वीस धरै मन ल्हान ।। ३२१॥ अतिक्रम व्यतिक्रम श्ररु अतिचार, अनाचार इन चौगुन सार । भये भेद चोरासी यही काम विकृति दश सुनिये सही || ३२२ ॥
विजेता हो, वायु के समान निःसङ्ग वीर हो एवं कूल पर्वतकी तरह अचल हो। तुम क्षमामें पृथिवीके समान, गम्भीरता में समुद्र के समान और प्रसन्नचित्त होनेके कारण निर्मल जलके समान हो, कर्मरूपी जंगलको नष्ट करने के लिये आप अग्नि-अंगारके समान हैं । हे प्रभो, तुम त्रिलोकमें वर्द्धिष्णु हो एवं श्रेष्ठ बुद्धिशाली होनेके कारण सन्मति हो। तुम्हीं महाबली और परमात्मा हो । हे नाथ, प्राप निश्चल रूपके धारण करने वाले हैं एवं प्रतिमा योगके सीखने वाले हैं। आप परमात्मा स्वरूप हैं आपको सदैव नमस्कार है । इस प्रकार उस स्थाणुरुद्र ने महावीर प्रभुकी स्तुति करके नमस्कार किया और ईर्ष्या छोड़कर अपनी प्रिय पत्नी पार्वती के साथ ग्रानन्दित होकर अपने स्थानको चला गया। जब महापुरुषों के योग जन्य साहस एवं शक्तिको देखकर दुर्जन भी परम आनन्दित हो जाते हैं तब सत्पुरुषों का तो कहना ही क्या ? उनका तो दूसरों के गुणों पर मुग्ध हो जाने का स्वभाव ही होता है ।
इसके बाद किसी चेटक नामके राजाकी पुत्री जिसका नाम चन्दना था एवं जो महा पतिव्रता थी, वह जब वन कोड़ा में लीन थी तब वह विद्याधर शीघ्र ही उसको उठा ले गया। बाद में उसे अपनी स्त्रीका ध्यान आया और स्त्रीके भय से उस सती चन्दना
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