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चिन्ता प्रथम प्रवर्ते भारी, दुजे दर्शन वांछाकारी दीर्घ उसास काम उदर चार दहे देह भोजन रविवार ।।३२३॥ प्रसन्न मूरछा काम जु बंध, अष्टम फीड़ा हास्य प्रबन्ध प्रान सन्देह नवम गुण जान. मोचन शुक्र दान पहिचान ।। ३२४ ।। एवं सुगुन वसु सम चालीस भव विरामना दशविध दीस प्रथमहि अस्त्री को सनसर्ग अरु शरीर मंडन दुरवर्ग || ३२५|| रागी सेवा सहस सुखार, सेवं सतत परम दुखकार जैन सुगन्ध संचरेन यथं ग्रह पुन कोमल छैन || ३२६॥ दशम कुलीन संसरण थपे, पाठ सहस अरु चथ सम भये । कृत क्रमके दशभेद जु पोष, प्रथम अंकषित सूक्षम दोष || ३२७||
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दृष्ट दोष षष्ठम जानिये, बादर दोष सप्तम मानिये ।।३२८ ।। इन दशस वुनिये सब जान सहस चुरासी नये प्रमान ॥ ३२॥ प्रतिक्रमण सदुभय तीन च विवेक उत्सग पन लोन ||३३० ॥ इष्ट दशह गुण सार, माठ लाख चालीस हजार ॥३३१॥
जय विगत अनुमानित चार (प्र) छन् दीप पंचम अवधार शब्दाकुलित अष्टमी कोष, बहुगम पूर्वभोग चितौन पत्र संजम दश सुनी प्रकाश, प्रथम भेद बालोचन जास सप छेदन मूसह परिहार उपस्थान नवम अवधार अब दश धर्महि को सुन भेव, उत्तम क्षम आदिक गन लेव । इनि दशगुन चौरासी लाख, जब पालं उत्तर गुण भाष ॥ ३३२ ॥ रु अठवीस मूलगुण लहै, ते प्रमत गुण थानक कहे । इहि विधि गुण धारं निज काय, वीरनाथ प्रभु भवि सुखदाय ||३३३|| इत्यादिक ग्राचार सहीत विहरं देश ग्राम जग पीत रहें मौन सों सदा समेत तोडू धषु दरशा हेत ।। ३३४ ॥ नगर उज्जैन वर्से शुभ थानम, शान भूमि बन निकट प्रमान तहां जाय प्रभु दीनों ध्यान, चित अडोल प्रतिमा जिम जान ।। ३३५ ।। मेह शिखर सम मनों अनूप, उरमें जपै धातमा रूप पुत्र सात्यकि अन्तिम रुद्र' स्थाणु नाम है पाप समुद्र ।। ३३६ ।।
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को एक भयानक वनमें उस विचारने छोड़ दिया। चन्दनाने सोचा कि सम्प्रति मेरे पापों का उदय हुआ है, इसलिये वहु पं नमस्कार मंत्रोंको जपती हुई धर्म साधना में तत्पर हो गया। वहाँपर एक भीलोंका राजा माया ओर धनको इच्छासे उस चन्दना को उठाकर वृषभसेन नामके एक सेठको दे माया और बदले में प्रचुर धन पाया। उस सेठकी सुभद्रा नामको एक स्त्री पहले से ही थी उसने जब देला यह एक अत्यन्त रूपवती युवती स्त्री यहां आयी है तब उसने सोचा कि अवश्य हो यह मेरी सीत होने को
१. देवों द्वारा वीर तप की परीक्षा
श्री वर्द्धमान महावीर की कठोर तपस्या से केवल मत्र्यलोक के जीव ही नहीं, मक्कि स्वर्गलोक के देवी-देवता भी दांतों तले अंगुली एक दिन इन्द्र महाराज की सभा में वीर स्वामी की नपा की प्रशंसा हो रही थी, कि भव नाम के एक न देन को विश्वास न हुआ कि पृथ्वी के मनुष्यों में इतनी अधिक शक्तिशान्ति स्वभाव-गम्भीरता हो। उसने इन्द्र महाराज से कहा कि जितनी शक्ति आपने वीर स्वामी में बताई है, उतनी तो हम स्वर्ग के देवताओं में भी नहीं । यदि जाज्ञा दो तो परीक्षा करके अपना भ्रम मिटा लूँ । इन्द्र महाराज ने स्वीकारता दे दी । श्रीमान महावीर उज्जैन नगरी के बाहर अतिमुक्तक नाम की स्मशान भूमि में प्रतिमा योग धारा किये नदी के किनारे तप में मग्न थे। रु ने अपने अवधि ज्ञान से विचार करके कि महावीर स्वामी इस समय कहाँ हैं ? उसी श्मशान में आ गया। रात्रि का समय, सुनसान और नानक स्थान, सदों की ऋतु नदी के किनारे प्रसन्न मुख श्री महावीर स्वामी को तप में लीन देखकर आश्चर्य में पड़ गया। उसने अग्नी देव शक्ति से मान भूमि को अधिक भयानक बनाकर अपने दांत बाहर निकाल, माथे पर सीग लगा, आंखें लाल कर बहुत भयानक शब्दों में इतना शोर किया कि मनुष्य तो क्या पशु तक भी कांप उठे। वीर स्वामी पर अपना कुछ प्रभाव न देखकर उसने विताना विधाड़ना और गरजना आरम्भ कर दिया कि दूर-दूर के जीव भयभीत होकर भागने लगे ।
शक्ति से
अपना कार्य सिद्ध न होता देखकर रुद्र ने अपनी मायामयी शक्ति से महा भवानक भीलों की फौज बनाई जो नंगी तलवारें हाथ में लेकर डरती और धमकाती हुई वीर स्वामी के चारों तरफ ऊधम मचाने लगी। इस पर भी वीर स्वामी को चलायमान होता न देख, उसने महाभयानक शेरों, चीतों और भगेरों की डरावनी सेना से इतना अधिक घमासान शोर मचवाया कि समस्त श्मशान भूमि दहल गई । परन्तु फिर भी वीर स्वामी को बिना किसी खेद के प्रसन्न मुख ध्यान में भरत देखकर रुद्र के छक्के छूट गए। उसने हिम्मत बांधकर इस कदर गर्द गुरुवार और मिट्टी बरसाई कि वीर स्वामी नीचे से ऊपर तक मिट्टी में दब गए। वीर स्वामी को फिर भी ध्यान से न हटा देव इतनी बरसा वरसाई कि तमाम इनशान में पानी ही पानी हो गया और ऐसी तेज हवा चलाई कि वृक्ष तक जड़ से उखड़कर गिरने लगे। बीर स्वामी को विशाल पर्वत के सम्मान निरन्तर तप में लीन देख वह आश्चर्य करने लगा कि यह मनुष्य है या देवता ? अपनी कमजोरी पर क्रोध करते हुए रुद्र ने मायामश्री से
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