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दोहा
वरी विक्रिया ऋद्धि यह एकादेश गुणवान गूढ़ केवजीको सुगम, भाषी श्री भगवान ॥२१॥
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इति विक्रिया ऋद्धि वर्णन
दोहा
चारण मुनि नभगामिनी, आके गुण सवारो ।।२८२|| । श्रेणि] तन्तु अपनी शिखा, कहीं सबन को जल ||२३|| अडिल्ल
किया ऋद्धि अन्तिम सुनो, बरनी शाखा दोय चारण ऋद्धि ग्राह गुण, जलजं पह फल पत्त
भूवत करें बिहार मुनी तप जोग हैं। होइ नं जलहि लगार सु जलचारी कहै ।। धरती ते चतुरंगुल पद्मासन चलें। जंधाचारी ग्रंग प्रगट तपबल भलै ॥ २८४ ॥ पहुचारि मुनिराज फूल में गम नहै फसवारी फल उपरि चर्त अति पुन | पत्र चारको गमन पात हाले नहीं पलं बेस पर सोय थेणि नारी सही ।। २६५ ॥ सूक्षम कला जुदार तन्तुभारी यहै। अग्निशिखा पर दांकन वित्तन क है । देह न परसे अगिन पारिको मह तपसा परभाव ऋद्धि वसुधारिको ॥ २०६ ॥ अब प्रकाश करगमन चलै धरि ध्यान जो । गमन गमन वह ऋद्धि करहि मुनि मान जो ॥ नभगामी यह अंग दुतिय पुरी भयो । क्रिया ऋद्धि मुनिराज गमन सूरी थयौ ।। २८७||
दोहा
क्रिया ऋद्धि दो गुण कहे, हिंसा रहित सदीब । सोहे श्री मुनिराजको ज्ञान शुद्धिको सीव || २६८ ॥ इति क्रिया ऋद्धि वर्णन
दोहा
सप्त ऋद्धिपटतील गुण, विक्रिय ग्यारह अंग प्राठ ऋद्धि उत्तम विमल, वसु मलहारी जोर। समभावन बरतें सदा एकाकी यन ठौर
किया ऋद्धि गर्भित जुगन, संतान सरवंग ।। २६ ।। सिद्धि भई जिनराज को, करत तपस्या घोर ॥ २६०॥ सह परी वीस वै ते वरतों और ||२१|| कछु
अमृत जलका सिंचन किया करते थे । इस प्रकार वर्षा, शीत एवं ग्रीष्म ऋतुओं में शारीरिक सुख की हानि के लिए काय क्लेश तपकी साधना में तत्पर रहकर नितान्त दुष्कर छ प्रकारके बाह्य तपोंका महावीर प्रभुने पालन किया। उन्हें भावितादि तपकी कोई आवश्यकता नहीं थी इसलिये महावीर प्रभु अपने प्रमाद शून्य एवं विजितेन्द्रिय मनको विकल्प रहित करके कार्यात्सर्य पूर्वक कर्मरूपी शत्रुओं का समूल नाश करनेके लिये धात्म ध्यान में ही लगे रहते थे। वह ध्यान कर्मरूपी बनको जला देनेके लिये भीषण अग्निके समान हैं, एवं परमानन्द का दाता है। इस यात्मध्यान में लीन होकर सम्पूर्ण पापों को रोक देने से महावीर स्वामी के सब सभ्यन्तर तप तो पहले ही हो चुके थे इस रीति से महावीर प्रभुने अपनी शक्तियों के प्रकट हो जाने पर भी विरकाल तक दत्तचित्त होकर बारह प्रकारके श्रेष्ठ तपों को साधनाने तत्पर रहे। इसके बाद प्रभु महावीर क्षमा-गुणसे युक्त होकर पृथ्वी के समान अव एवं प्रसन्न विमल स्वभाव के कारण निर्मल स्वच्छ जलके समान शोभित हुए। वे दुष्ट कर्मरूपी जया जलाने जंगलका वाले अग्नि थे एवं कषाय तथा इन्द्रिय रूपी शत्रुत्रों को मारने वाले दुर्द्धर्ष महाबैरी थे। वे निरंतर अपनी धार्मिक बुद्धिके द्वारा धर्म साधनामें तत्पर रहते थे और इहलोक एवं परलोकमें सपार सुखोंको प्रदान करनेवाले क्षमा यादि दश लक्षणोंस युक्त थे।
अचल
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