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पद्धडि छन्द तपके बलते यह पद लहाय, सो मरण समय जब होय आय । तह निसंदेह प्राननि विनाश, यह आसन बिषगुण को प्रकाश ॥२६१।। चितवं जाहि तन क्रोध होय, जो प्राणी ततछिन मरहिसोय । यह यद्यपि मुनि है दयासिंध, यह दृष्टि विषापर ताप लिध ।।२६।। कोई भोजन मुनिको रूक्ष देत, घर कर पर सौ ग्राहार लेय । पर सत स्वहस्त घृत चुंबत जाय, यह घत स्रावक गुणको सुभाय।।२६३॥ अरु दुग्ध चुंबै वाही प्रकार, पय स्रावक अंग प्रताप धार । यह पर्व रीतसम मधुर जान, सो मधुर स्राविको फल वखान ।।२६४।। प्रति अमृत मुनि कर स्रव सोय, तद क्षुधा तृषाको हरण होय । इहि भांति मुनिहि पाहार देय, यह अमृत साबि जुफल' कहेय ।।२६५।।
दोहा यह वरनी रस ऋद्धि की, देशा पुनीत अनूप। तिनकै प्रगटत है सदा, जे मुनि मुक्ति सरूप ।।२६६।।
इति रसऋद्धि वर्णन।
दोहा कहाँ विक्रिया ऋद्धि के एकादश गुण सोय । अणिमा महिमा लग्घिमा, गरिमा प्रापति होय ॥२६७।। प्रकामित्व ईशित्वता, दशिता अप्रघ ताप। अंतर ध्यान जु दशम है, कामरूपित्व तथाप ।।२६८।।
चौपाई
एक एक को वरणन करौं, सुखसौं भवसागर उद्धरौं । अणूमात्र कर देही भेष, कमल नालके छिद्र प्रवेश ॥२६॥ सोइ तहां चित पूरे मूत, चक्रवर्ति तब रहे विभूत । सो सब निज वपु में ले धरै, मणिम प्रथम चरित रह कर ।।२७०।। जोजन एक लाख जो तुंग, मेरु समान शरीर अभंग । अब चाहे तब रचे बनाय, महिमा ते यह गुण अधिकाय ॥२७॥ पवन समान देख सब ठौर, यह जग में हलको नहिं प्रोर । ताही ते लघु धरै शरीर, लघिमा गुण ऐसो गंभीर ॥२७२।। वन कहावै भारी यहां, यह ते मोर बखानी कहां । ताही सम तन धारं सोइ, गरिमा को गुण ऐसो होय ॥२७॥ बैठो श्राप धरा पर लसै, मेह अंग ग्रंमुलसौं धस । सूरज आदि ज्योतिषी देव, सबको परसै प्रापति एव ।।२७४।। जलपर गमन भूमिबत कर, भूतै अन्तरीक्ष पग धरे। निज तनतं सेनादिक रच, प्रकामित्व यह गुणको लंच ।।२७५।। जब जियमें कर विविध हुलाश, जग की प्रभुता को परकाश। तीन लोकपति माने पाप, यह ईशित्व तनों परताप ॥२७६।। नर तिर्यच अमर दे प्रादि, सकल जीव वरतें जु अनादि । सबको निज वश कर मुनिराव, यहै वशित्व अमल परभाव ॥२७७॥ दर्गम विषम पहार उतंग, जिन पै चलिर्व को मन पंग। तिन गिरि गमन प्रकाश समान, अप्रतिघात सूगून यो जान ।।२७८।। सबको देख वह न लखाय, अदरश रूप सदा हो जाय । अन्तरध्यान तनों वल जोइ, तप बल कह न परगट होइ ॥२७६।। सुर नर खग तिर्यच विचार, तिनको रूप विविध परकार । धरै जासको चाहै रूप, कामरूपि गुण यही अनूप ॥२५॥
अनशन तपको करते थे। वे किसी पारणाके दिन अवमौदर्य तप और किसी पारणाके दिन लाभान्त रायकी इच्छासे पापोंको दूर करनेके लिये चतुष्पक्षादि की प्रतिज्ञा करके वृति परिसंख्यान तप करते थे। कभी निविकारिता पानेके लिये रस त्याग तप करते थे एवं कभी उत्तम ध्यानके लिये बनादिके एकान्त स्थल में शय्यासन तपको करते थे। वर्षा कालमें जब कि सारा प्रकृति झंझावातके उग्र आलोडनसे थर्राती हुई दृष्टि गोचर हो रही थी तब महावीर प्रभु धयं रूपी कंवलको प्रोढ़कर किसो वृक्ष के नीचे समाधि लगाये रहते थे। शीतकाल में वे किसी चतुष्पथ (चौराहे पर अथवा सरिता तटपर ध्यान में मग्न रहते थे। इस प्रकार कितने ही वृक्षांको जला देनेवाला भयंकर हिम प्रतापको अपने ध्यान रूपी अग्नि-ग्रंगार से जलाया करते थे। ग्रीष्म कालमें जब किचारों मोर अग्नि वर्षा हुआ करती थी तब सूर्यको किरणोंसे अत्यन्त तपे हुए पर्वतके शिलाखण्डों पर अपने ध्यान रूपी शीतल
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