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इति बुद्धि ऋद्धि वर्णन
दोहा ऋद्धि औषधी भेद बसू, विटमल आम उजल्ल' । वृल्ल सर्व वृष्टि विषा-दाशन विष गुण मल्ल ।।२३६॥
गीतिका छन्द विटऋद्धि मुनि विष्टा जु लेपहि, राकल रोगनको हरे। निर्मल निरोग शरीर निबसे, अंग परतापहि धरै॥ लहि मैल दाँत जु कान नासा, रोग लस देखत डर । धातु सकल कल्याणकारी, मल ऋद्धि यह गुण विस्तरै ॥२३७।। रोगसौं असि' और दारिद भाग हीन जु चितव । तह हाथ छुवतन सकल साता पाम अंगहि गुण सबै ।। मुनि श्रम जलहि ल तन लगावत होय सुख ही चमै । नास असाता देह परसत अंग उज्वल यह नमै ॥२३८।। मूत्र थक खकार मुनिको-व्याधि हर धानुहि रच । मनके मनोरथ पूर राख-चुल्ल गुण सब भ्रम खर्च ।। मुनि अंग परस जु पवन आवै करहि सुख तन दुख हर । नासै जु अघ पाताप जियके सर्व अंग ज यह टरै ।।२३।। मूनि सर्प काट्यो होई कोई तथा काहू बिष पियो । दृष्टि परत पाताप नाही दृष्टि विप गूण पहिलयी।। दुष्ट जन मुनिराज को विष मिथ भोजन देवहीं। तो होय अमृत छिनक में ही विष तन परभाव ही ।।२४०।।
इति औषधि ऋद्धि वर्णन
दोहा अब सुन क्षेत्र जु ऋद्धि को, वरनौं शाखा दोय । प्रथम अधिन्न महानसो, क्षेत्र महालय होय ॥२४१।।
गीतिका छन्द जाकै जु मुनि जब होय भोजन; दीन वह फल यह ल है । चूका दल जु रसोई खातहि, तासत अधिकी रहै ।। क्षय भई प्रकृति लभान्तरायी, तथा उपशम के उदै । तप बलहि प्रगटै गुणहि ऐसो नाम अधिन्न महान है ।।२४२॥ जहां मूनिवर कर्म नाहि, चार हाथ जु भुवि परै । कोदि नर सुर पशुन वल तंह, निराबाधक तन धरै ।। कष्ट मुनिको कबहुं नाही, यह प्रभावहि थल वही । अब छिन महालय अंग दुजो, कह्यौ पागम लहि सही ।।२४३।।
दोहा क्षेत्र ऋद्धिगह विमल गुण, सौहे तप मुनि ईश । देवन को दुर्लभ सदा, भाषी श्री जगदीश ॥२४॥
इति क्षेत्र ऋद्धि वर्णन
मोक्ष प्राप्त होता है। इस लोक में तो तुम लोगों ने देखा ही होगा कि उत्तम-पान को दान देने से बहुमूल्य अपार रत्न राशि की प्राप्ति होती है एवं विमल यशका विस्तार होता है परलोकमें भी स्वर्ग सम्पदाए एवं भोग विभूतियां प्राप्त होती हैं जिनके द्वारा चिरकाल तक प्रानन्दोपभोग किया जाता है। रत्नवृष्टिके कारण राज-महल का प्रांगन भर गया। आँगन में पड़ी हुई उन रत्नों के देरको देखकर बहत लोग परस्पर कहने लगे कि देखो, दान का केसा उत्तम फल है ? पाखोंसे देखते ही देखते यह राज प्रसाद बहमल्य रत्नों की वर्षा से भर गया! दूसरे ने कहा यहां क्या देखते हो ! यह तो अत्यन्त अल्प फल को हो तुम अपनी आंखों से देख रहे हो । उत्तम पात्र दान से तो स्वर्ग एवं मोक्ष के अक्षय सुख अनायास ही प्राप्त हो जाते हैं। इन लोगों को कथनोपकथन को मनकर एवं अपनी प्रांखोंसे प्रत्यक्ष पात्र दानकी महिमा को देखकर बहुत से जीव स्वर्ग एवं मोक्ष फलकी कल्पना करने लगे और पात्र दानकी महत्तामें विश्वास कर लिया।
पाहार दानके समय वीतराग श्रीमहाबीर तीर्थकर ने अपने शरीर की स्थिति के विचार से अंजलिपूर रूपी पात्रके द्वारा