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गीतिका छन्द पाख मास उपास साधत, ध्यान धरि कालहि हनं । जाहि भोजन निमित ग्रामहि, तहां विधि कछु नहि बने । खेद उर तस करत नाही, परम समता थिर रहै । क्षुधा इहि विधि सहत जे मुनि, तिनहुके हम पद गहैं ।।२६३।।
प्यास
बढ़त प्यास प्रवास अति ही, वास उर व्यापै घनौ। कंठ मुख जब सूख आव, पित ज्वर कोप्यौ मनौ ।। ध्यान अमृत सींच के जब, तृषा तीक्षण नाशही । चलै चित्त न किमपि मुनिको, चरण वितिके लागही ॥२६४||
सर्दी शीत सौं कंपत जग जन, तरु तुषारहिसों ढहै। बहत झंझा पवन निशदिन, मेघ वर्षा ऋतु गहै ।। तंह धीर तटिनी तट जु चौहट, ताल पालन तर तलें। सहत शीत मुनीश उत्तम, तरन तारन है भलं ॥२६॥
गर्मी अगिम सम है धूप ग्रीषम, तपत अति ज्वाला घनी । तपत प्रबल पहार आदिक, नीर सर सूखत गनी ।। नरहि सुवसन छांह, विलमत कुटे लोचन जाय हैं । धरत मुनि तब ध्यान गिरि शिर, उष्ण परिष जय यहै ॥२६६॥
होकर सम्पूर्ण और गुणोंके साथ सारे मूल गुणोंकी पालनामें सचेष्ट होकर किसी भी दोष को स्वप्नमें भी अपने पास नहीं फटकने देते थे । इस प्रकारके परमोज्वल चारित्र युक्त महावीर प्रभू सम्पूर्ण पृथिवी पर बिहार करते हुए उज्जयनी नामकी एक महा नगरीके अतिमुक्त नामक श्मशानमें जा पहुंचे। उस महा भयानक श्मशान में पहुचकर महावीर प्रभु ने मोक्ष प्राप्तिके लिए शरीर का ममत्व छोड़कर प्रतिमा योग धारण कर लिया और पर्वतके समान अचल भावमें अवस्थित हो गये। सुमेरु पर्वतके उन्नत - -
- - --- -- ----- - - वस्त्र पहिनते हैं वहां श्री वर्द्धमान महावीर ने अपनी इन्दियों तथा मन पर इतना काबू पा रखा था कि उन्हें लंगोटी तक की भी आवश्यकता न थी। चरित्र मोहनीय कर्म का नाश करने के हेतु वे कतई नग्न रहते थे ।
अत्यन्त रूपवती स्त्री को देखकर भी दिगम्बर निग्रंन्य मुनियों को विकार उत्पन्न नहीं होता। बड़े-बड़े बजारों तक में सिंह के समान नग्न चलते-फिरते हैं । इनको बहुत ही सम्मान प्राप्त है। ऋग्वेद, यजुर्वेद, उपनिषद, शिवपुराण, कर्मपुराण, रामायण, विवेकचूड़ामणि, बौद्ध, सिख, मसलमान, ईसाई, यहदियों, आदि में भी इनका उल्लेख है। गांधीजी को नग्न स्वयं प्रिय था । महाराजा भर्तृहरि जी नग्न होने को इच्छा रखते थे। स्वामी रामकृष्ण परमहंस के सम्बन्ध में लिखा है कि वे बालक के समान दिगम्बर हैं।
७. अरति परीषह-बर्द्धमान महावीर इष्टदियोग और अरिष्ट संयोग को चारित्र मोहनीय का फल जान कर किसी से राग-द्वेष न रखते थे।
५. स्त्री परोपह-जहां किसी सुन्दर स्त्री को देख कर हमारे में विकार उत्पन्न हो जाते हैं, परन्तु वीर स्वामी की स्वर्ग की महा सुन्दर देवांगन ओं तक ने लुभाना चाहा, तो भी वे सुमेरु पर्वत के समान निश्चल रहे । सूरदास जी वीर थे जिन्होंने स्त्रियों को देखकर हृदय में चंचलता उत्पन्न होने के कारण अपनी दोनों आँखें नष्ट करली, परन्तु वीर वास्तव में महावीर थे कि जिन्होंने आँखें होने तथा अनेक निमित्त कारण मिलने पर भी मन में विकार तक न पाने दिया।
. चर्या परीषह-जहां हम चार कदम चलने के लिये सवारी दढ़ते हैं, वहाँ सोने की पालकी में चलने वाले और मखमलों के गहों में निवास करने वाले वर्द्धमान महावीर पथरीले और कांटेदार मार्ग तक में तथा आग के समान तपती हुई पृथ्वी पर नंगे पाद पंदल हो बिहार करते थे।
१०. प्रासन परीषह-जहां हम एक आसन थोड़ी देर भी सरलता से नहीं बैठ सकते, भगवान महावीर महीनों-महीनों एक आसन एक ही स्थान पर तप में लीन रहते थे। जिस समय तक की प्रतिज्ञा कर लेते थे अधिक-से-अधिक उपसर्ग और कष्ट आजाने पर भी वे आसन से न डिगते थे।
११. साम्पा परीषह-जहाँ हम पलंग के जरा भी चे-नीचे हो जाने पर व्याकुल हो जाते हैं। सोने-चांदी के पलंगों, रेशमी और मख
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