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डांस, मच्छर आदि काटत जु तन में डांस माखी, व्याल बिच्छु विष भरे। पुनि सिंह बाघसु श्याल शुडल, रीछ पीड़त अति खरे॥ कष्ट इहि विधि सहत जे मुनि, भाव समता उर लिये । इंशमशक परीषह जयो, वसह ते ‘मेरे हिये ।।२६७।।
नग्न लोक लाज न भय तिन्हें कछु, नगन तन विहरत मही। पुनि बर दिगम्बर जैन मुद्रा, ध्यान उर धारत सही॥ शीलात ढ़ धरै तन मन, निरविकार सुहावने । महामुनिपंद नगन विजयी, नमहुँ त्रिभुवन भावने ॥२९८||
परति देश में कहु काल उपजहि, अधिक सबको दुख तहां । क्षीण तन जन होंहि विह्वल, धरत धीरज नहि जहां ।। करत कोलाहल घने सो, अरति अति उपजावही । साधु धीरज गहत उनही, अरति विजय कहाबही ।।२९६॥
स्त्री ते शूर है परधान बहुविध, पकर केहरि को रहै। देखि जिनकी भौंह वांकी, कोट जोधा भय गहैं ।। रूप सुन्दर जोपिता जत, करत क्रीड़ा मन रम। ते साधु मेरु समान निवस, सदा तिनके पद नमै ||३००।
श्रुगके समान एवं परमात्माके ध्यानमें लीन श्रीजिनेन्द्र महावीर प्रभुको देखकर उनके धैर्यकी परीक्षा करनेके लिये स्थाणु नामक यहाँके अन्तिम रुद्र महादेवको उपसर्ग करने की इच्छा हुई। इसी समय जिनेन्द्रके कुछ पूर्वकृत पापोंका भी उदय होने वाला था । वह स्थाणु रुद्र अनेक' भयंकर एवं नानाकृति स्थल-काय पिशाचों को अपने संग लेकर महावीर स्वामी के ध्यान को भंग करने के लिये प्रस्तुत हुना। रात्रिके समयमें यह स्थाण रुद्र अपने बड़े-बड़े नेत्रोंको फाड़कर देखते हुए जिनेन्द्र प्रभु के सम्मुख पाया। उस
मली गद्दी तथा सुगन्धित पुष्पों की सेज पर सोने वाले बद्ध मान महावीर कठोर भूमि पर बिना किसी वस्त्र तथा सेज आदि के नग्न शरीर वेदनीय कर्म को नष्ट करने के हेतु रात्रि को भी ध्यान में मम रहते थे।
१२. आक्रोदा परीषह-जहां हम साधारण बातों पर क्रोधित हो जाते हैं, वहां बिना किसी कारण के फातियाँ उड़ाये जाने और कठोर शब्द सुनने पर भी बर्द्धमान महावीर किसी प्रकार का खेद तक न करते थे।
१३. वष परीषह-दुष्टों ने अज्ञानता, ईष तथा उनके तप की परीक्षा के वश श्री बईमान महावीर को लोहे की जंजीरों से जकड़ दिया, लाठियों से मारपीट की, उनके दोनों पायों के बीच में चूल्हे के समान अग्नि जलाकर खीर पकाई, दोनों कानों में कीलें ठोंक दी, परन्तु श्री वर्द्धमान महाबीर इतने दयालु और क्षमावान थे कि तप के प्रभाव से इतनी ऋद्धियाँ प्राप्त हो जाने पर भी कि वे इन सब कष्टों को सहज ही में नष्ट करदे बेदनीय कर्मों की निर्जरा के हेतु, समस्त उपसर्गों को वे सरल हृदय से सहन करते थे।
१४. याचना परोषह-अधिक से अधिक काल, भूख प्यास होने पर भी बर्द्धमान महावीर किसी से कोई पदार्थ, मागना तो एक बड़ी बात है, मांगने की इच्छा तक भी न करो थे ।
१५. प्रलाभ परीषह.. अनेक धार नगरी में आहार निमिः जाने पर भी भोजनादि का लाभ विधि-अनुसार न हुआ तो अन्तराय कर्मरूपी कर्ज की अदायगी जानकर खेद नक न करते थे।
१६. रोग परीषह-जहां हम थोड़े से भी रोग हो जाने पर महा दुःली हो जाते हैं। श्री वद्धमानजी महाभयानक रोग उत्पन्न हो जाने पर भी उसे बेदतीय कर्म का फल जान कर औषधि की इच्छा तक न करते थे।
१७. तृणस्पर्श परीषह-नंगे पांव चलते हुए ककर मा कांटादि भी चुभ जाय तो श्री वर्द्धमान महावीर उसे भी शान्तचित - सहन करते थे।
१८. मल परीषह-.-शरीर पर धूल लग जाने या किसी ने राख, मिट्टी, रेत आदि उनके शारीर पर डाल दिया तो भी उसका खेद न करके श्री वर्द्धमान तप से लीन रहते थे।
११. अविनय परीषह-जहां हम संसारी जीव थोड़ा-सा भी आदर सरकार में कमी रह जाने पर महा दुःखी होते हैं, वीर स्वामी चार ज्ञान के धारी महा ज्ञानवान्, महाधर्मात्मा तथा महातपस्वी और ऋद्धियों के स्वामी होने पर भी कोई उनका सत्कार न करे तो चारित्र मोहनीय कर्म का फल जानकर वे किसी प्रकार का खेद न करते थे।
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