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दोहा
परम भक्ति उर में बड़ी, विरकत वचन सुनाय । पुनि प्रस्तुति प्रारम्भ किय, लौकान्तिक सुरराय ॥६
लोकान्तिक देवों के द्वारा भगवान का सम्बोधन होना
चौपाई
तुम प्रभु तीन जगत के नाथ, तुम गुरु में गुरु महा सनाथ । तुम ज्ञानिन में ज्ञानी सर्व, भव्य जीव बोधक गुणधर्य ।।१०॥ विश्व ज्ञान परकाशक भान, सकल पदारथ वेदक वान । सो सब बोध प्रगट जग भयो, भव्यजीव को विकलप गयौ ।।१।। जब उदयाचल पावे भान, निश नम गयो जग्यो जगवान | तीन लोक तुम उदय कराय, मोह नीद भग गई पलाय ।।१२।। निज नियोग हम पाये देव, तुम संबोध सके को एव। प्रभु की भक्ति न हृदय समोय, मुख उच्चार करावै सोय ।।१३।।
जब उनकी अवस्था कुछ अधिक बढ़ी तो उनके मुख से सरस्वती को भांति बाणो निकलने लगी। रत्नों की भूमि पर चलते हए उनके आभूषण सूर्य की किरणों की तरह दमदमाते थे और वे स्वयं किरणों से परिवष्ठित सूर्य सा प्रतीत होते थे। उन्हें खेलने के लिए देव, हाथी, घाड़ा प्रादि के रूप कृत्रिम दिये गये थे। व बनके साथ क्रीड़ा करते हुए खेला करते थे। इस प्रकार अन्यान्य क्रीड़ानों से प्रसन्न करते हुए व भगवान कुमार अवस्था को प्राप्त हुए। उनका जो पूर्व में क्षायिक सम्यक्त्व था, उससे उन्ह समय पदार्थों का स्वतः ज्ञान हो गया।
प्रभ के उस समय दिव्य शरीर में स्वाभाविक मति श्रुति, अवधिज्ञान प्रादि वृद्धि को प्राप्त हुए। उन्हें समस्त कलाये और विद्यायें स्वत: प्राप्त हो गयी । इसलिये वं प्रभु मनुथ्य तथा देवों के गुरु स्थानोय हो गये। पर इन स्वामी का कोई गरु नहीं था। ठीक पाठय वर्ष में उन्होंने बारह व्रतों का ग्रहण किया । प्रभु का शरीर पसीना रहित, चमकीला पीर मलभूत्र आदि रहित खंत दुध के सदश था। श्वेत रुधिर युक्त और महान सुगन्धित पाठ शुभ लक्षणों से वे शोभायमान थे। पूर्व में वजवषभ नाराच सहनन और सम चतुरस्र संस्थान बाल उत्तम रूप युक्त पौर विशाल बलवान हुए।
वे सबके हितकारक नीर कर्ण मधर शब्दों का उच्चारण करते थे। इस प्रकार जन्म काल से ही दिव्य दश अतिशयों से युक्त शांतता आदि अपरिमित गण कीति कला विज्ञान आदि से वे सुशोभित थे। उनका शरीर तपाये हए सोने के वर्ण जैसा हुआ। वे दिव्य देह के धारक धर्म की प्रतिमूर्ति के सदृश जगत के धर्म गुरु हुए।
एक दिन की घटना है कि इन्द्र की सभा में देवों ने भगवान की दिव्य कथा को चर्चा की। वे कहने लगे-देखो. वे वीर जिनेश्वर कुमार अवस्था में ही धीर, शूरों से मुख्य, अतुल पराक्रमी, दिव्य रूप धारी अनेक गुणों से युक्त संसार क्षेत्र में कीड़ा करते हुए कितने सुन्दर प्रतोत होते हैं। उसी स्थान पर संगम नामका एक देव बैठा था। वह देवों को ऐसी बात सुनकर भगवान की परीक्षा के लिये स्वगं से चल पड़ा। वह महाबन में आचा, जहां प्रभु उस अनेक राज पुत्रों के साथ क्रीड़ा कर रहे थे।
२. "दिगम्बर सम्प्रदाय महावीर को अविवाहित मानता है जिसका मुलाधार शायद श्वेताम्बर सम्प्रदाय सम्मत 'आवश्यक नियुक्ति हैं। उसमें जिन पांच तीर्थकरों को 'कुमार प्रवजित' कहा है, उनमें महावीर भी एक हैं। यद्यपि पिछले टीकाकार 'कुमार प्रवजित का अर्थ 'राज पद नहीं पाये हुए' ऐसा करते हैं, परन्तु 'आवश्यकरियुवत' का भाय ऐसा नहीं मालूम होला।
श्वेताम्बर ग्रन्थकार महावीर को विवाहित मानते हैं और उसका गुलाधार 'कल्पसूब' है । कल्पसूत्र के किसी सूत्र में महावीर के गृहस्थ आधम का अथवा उनकी भार्या यशोदा का वर्णन हमारे दृष्टिगोचर नहीं हुआ।
दछ भी हो इतता तो निश्चित है कि महावीर के अविवाहित होने की दिगम्बर सम्प्रदाय की मान्यता विलकुल निगधार नहीं है।"
श्वेताम्बर मुनि श्री कल्याण विजय जी महाराजः श्रमरण भ. महावीर : श्री का वि० शास्त्र संचह समिति जालोर मरवाह) पृ. १५३