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मब सुनिये चारित्र प्रमान, प्रथम कहे व्रत के सन्मान । ताके हैं दो भेद निदान, देशव्रत पहिली उनमान ॥१७॥ श्रावक पाल धर अनुसरै, एकादश प्रतिमा को घरै । थावर की रक्षा नहि होय, पंचम प्रणवत पालहि सोय ||१८|| दुर्जा रावबती जोगेश, ऋषि मुनि जति प्रागार न लेश। चार भेद यह प्रथम विचार, ताके गुण संक्षेप सम्हार IIEl ग्रड़तालोस ऋद्धि उपदेश, सो ऋषि विष्णुकुमार बतेश । मतिश्रुतवधि मनःपर्यय ज्ञान, इन्हें लहै सौ मुनि परधान ॥१०॥ सोल कषाय जीत पर वोर, सो कहिये जतिवर गुणधीर । अनागार चौथी सातार, तज गृह स्तव नव नब धार ॥१०१।। अब जु त्रयोदश चारित नाम, पंच महाबत गुप्ति विठाम । पंच समिति पालन परवीन, ताके भेद सुनौ गुणलीन ।।१०२॥ प्रथम अहिंसा व्रत को पाल, अस थावर रक्षा करहाल । सत्य महानत दुजो जान, सत्य वचन बोले निज वान ।।१०३।। तृतीय प्रचौर्य महावत धार, वस्तु अदन न अंगीकार । चौधौ ब्रह्मचर्य पालेय, अस्त्री राग न किमपि करेय ॥१०४॥ पंचम आकिंचन व्रत महा, परिग्रह रहित काल निरवहा । अब सुन पंच महाव्रत भाव सब पच्चीस अनुक्रम ठाव ।।१०।। प्रथम अहिंसा व्रत विधि पंच, जुदी जुदी भाषों वछ रंच । वचन गुप्ति पहिली भावना, मारन शब्द नहीं बोलना ॥१०६।। दूजी मनोगप्तिकी गाम, मन कर मारन नहि परिणाम । या तृतीय भावना रक्ष, चल दण्ड इक देख प्रतक्ष ॥१०७॥ आद निक्षेपण चोथी लेख, धरै उठाय वस्तु भू देख । लोकितपान भोजना पंच, लेयं अहार नीर शुद्धं च ।।१०८।।
हे बीर प्रभु ! आपको नमस्कार है, पाप जगत हितैषी हैं, आप ही मोक्ष रूपी रमणीको प्राप्ति के लिये उद्योगी है' इसलिये आपको हम पुनः नमस्कार करते हैं। अपने ही शरीर के भोगों के सूख में इच्छा हित हो, इसलिये पापको नमस्कार है। मोक्षरूपी स्त्री के साथ रमण करने को इच्छा रखते हो, इसलिये आपको नमस्कार है। महान पराक्रमी बाल ब्रह्मसारी, राज्य लक्ष्मीके त्यागी, अविनाशी लक्ष्मी में लीन तुमको नमस्कार है। योगियों के भी पाप महानगुरु हैं इसीलिये पापका नमस्कार है। सब जीवोंके परम वधु हो, जानकार हो, इसलिये पुनः नमस्कार है।
हे महान प्रभु ! इस स्तुति से हम यही चाहते हैं कि परलोक में चारित्र की सिद्धिके लिये आप पूरी शक्ति दं। हे वीरप्रभु ! वह शक्ति मोहरूपी शत्रुको नाश करने वाली है । इस प्रकार जगत पूज्य श्री वीर भगवान की स्तुति और अनेक प्रार्थनायें करके व लौकान्तिक देव अपने स्थान को प्रस्थान कर गये।
उसी समय तमाम देवादि सहित चारों जातिके इन्द्रोंने स्वयं धन्दादि के बजने से भगवान का संयमोत्सव समझ कर भक्तिभाव से अपनी इंद्रानियों के साथ महान विभूति से बिभुषित होकर अपनी २ सवारियों पर सवार हो नगरी में प्रवेश किया देवोंकी सेना अपनी पत्नियों सहित, सवारियों पर चढ़े हुए नगर और बन को चारों प्रोरसे चली। पश्चात इन्द्रने भगवान महावीर स्वामी को एक सिंहासन पर बैठा कर अत्यन्त प्रसन्नता प्रदर्शित करते हुये गीत नत्व, जय जयकार शब्दों का उच्चारण करते हए क्षीर सागर से सोने के कलशों से भरे हुये १००८ कलशों से उन वीर प्रभुका अभिषेक किया । इन्द्रने उन त्रिलोकीनाथ को दिव्य आभूषणों और बस्त्रोंसे अलंकृत किया। सुगंधित दिन्य मालायें पहिनाई। इस तरह भगवान को इन्द्रने खूब ही सजाया। पश्चात भगवानने अपनी जन्म देने वाली माता को ज्ञानामृतसे प्रभावशाली सरल और मोठे शब्दोंमें खूबही सान्त्वना दी । भाइयों को धैर्य बंधाया सैकड़ों उपदेशों से तथा वैराग्यके उत्पन्न करने वाले वाक्यों से अपनी दीक्षाकी बात समझा दी पश्चात संयम लक्ष्मी के सुख में उद्यमी ने वीर प्रभु खुशी के साथ तमाम राज्य पाट और माता, पिता, भाई बंधनों को त्याग कर इन्द्र द्वारा लाई हई देदीप्यमान चंद्रप्रभा नामकी पालकी पर सवार हो, दीक्षाके लिये वनको ओर चले गये । उस समय वे जगतके स्वामी तमाम देवोंसे घिरे हुए दिव्य आभूषणों से युक्त अत्यंत सुन्दर मालूम होते थे।
सबसे पहले भूमिगोचरी देवों में पालकी को उठाया और पंड ले जा कर रखी दी । पश्चात विद्याधर प्राकाशमें ७ पैड ले गये, उसके बाद धर्मस प्रेम रखने वाले तमाम देवोंने अपना २ कंधा लगाया और प्राकाश मार्गसे चलने लगे । इस समयकी शोभाका वर्णन करना इसलिये असंभव है कि जिस पालकी को ले जाने वाले स्क्यं इन्द्र और स्वर्ग के देवता लोग हों, उसकी अनुपम छटाका वर्णन क्या लेखनी द्वारा हो सकता है ? उस समय हर्ष से पुलकित हो तमाम देव पुष्पोंकी वर्षा कर रहे थे, वायु कुमार देव गगाके कणों से युक्त सुन्दर पवन चला रहे थे। कई देव भगवान का मंगल गान कर रहे थे, कुछ देव भेरी बजा रहे थे, इन्द्रको
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