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प्रभु के केश तब सुरराय, अपने हाथ उठाये प्राय । मणिमय डबा माहि धर लये, क्षीरोदधि ले तत्पर गये ॥१३६॥ मनुषोत्तर पर्वत तें बाहि, मनुष अंश आगे नहि जाहि । तहा केश खिर सहजहि गये, डबा वज्रमय रोसे भये ।।१३७।। तब सूरपति विक्रिय कर करै, फिर फिर जोर डबा में धरै । अंगुल एक न पाये गये, मनकर क्षीरोदधि क्षिप गये॥१३८॥ अब सरपति प्रति हर्ष बढ़ाय, प्रभु की थति कीनो बह भाय । तुम परमालप परम निधान, तोन जगत में सुगरु महान ||१३९ तुम प्रभु जगन्नाथ गुण सिंध, अरि विजयी निर्मलता भिध । तुम गरिष्ठ तुम वौर जिनेश, श्रुतिकर पार न लहै गणेश ॥१४०।। सूर गरु मुनिजन आदि अनेक, कोइ न समरथ करन विवेक । धर मो उर तुम भक्ति वढ़ाय, हठ उच्चार करावे पाय ॥१४१॥ बाहिर ग्राभ्यंतर मल धोय, निमल गुण मुनि परगट हाय । तिनको तुम थति विन न सुहाय, ज्या बिन मह कृषी हेयाहेय प्रकट तुम करौ, सार बस्तु तन मन अादरों । जो प्रभु तुमको मन में भजे, तब हो मन को विकलय तजै ।।१४३॥ राजपाट अधदायक होय, छिन में तुम त्यागी प्रभु सोय । तीन लोक को राज मनाग, ताको चाह करी तज शोग ॥१४४।। प्रति चंचल लक्ष्मी जग माहि, सो प्रभु तुमको छिन न सुहाय । परम शाश्वती लक्ष्मी थान, ताही को कीनी सन्मान ।।१४५।। दाट कर्म मद मान सहीत, मोह भूप, दल सुभट अजीत । तुम प्रभु बोर बिना हथियार, हन्यो छिनक में दया निधान ॥१४६।। मात पिता बांधव परिवार, तजत तिन्हें नहि लागीवार । लागे भोग भुजंग समान, उरमें केवल मोख निदान ।।१४।। बीमा जग में पर शद्ध, क्षमा पवित्र करन सम बुद्ध । मुक्ति श्री मनरंजन हार, प्रनमा त्रिविध-शुद्ध अविकार ||१४||
ब नमबह मल्य वस्त्रों से ढांका और समारोह पूर्वक क्षार-समुद्र के स्वच्छ शुद्ध जल में डाला । जब केश जैसी हीन वस्तका भी
के संसर्ग में रहने के कारण इतना अधिक सम्मान किया जा सकता है तब जो पुरुष स्वयं साक्षात् जिनेश्वर भगवान की राजा सेवा में लगे रहते हैं उन्हें संसार में कोनसो ऐसो अलभ्य वस्तु है जो नहीं मिल सकती है? उनको सेवासे सभी कल प्राप्त हो सकता है। इस संसार में भगवान जिन के कमल रूपी चरणोंके प्राश्रयमें आ जाने से जिस प्रकार यक्षों को सम्मान
हो जाता है उसी प्रकार प्रभ अहंतका जो लोग सहारा लेते हैं वे चाह नीच पुरुष ही क्यों न हा उनकी पूजा होती है, और
यस्त सादर की दष्टिसे देखा जाता है । इसके बाद महावीर स्वामीने दिगम्बर रूपको धारण किया। जब वे दिगम्बर हो गये तब उनका शरीर तपाये हुए स्वर्ण जैसा प्रकाशमय एवं तेजस्वो दीख पड़ा । मानो वह कान्ति एवं दाप्तिका स्वाभाविक तेज. भय समह ही हो। इसके बाद परम प्रसन्न इन्द्र उस परमेष्ठी महावीर प्रभुका गुण-गौरव गान-स्तुति करने लगे।
देव! इस संसारमें सर्वश्रेष्ठ परमात्मा तुम्ही हो! इस चराचर जगतके स्वामी तुम्ही हो। तुम जगदगर हो, गणसागर हो. शत्र विजेता हो पीर अत्यन्त निर्मल तुम्ही हा! हे प्रभो, जब आपके असंख्य एवं अनन्त गुणोंका वर्णन देख भी नहीं कर सकते तय मन्दमति मैं कहां तक आपके महान गुण एवं ऐश्वर्योका वर्णन कर सकगा? ऐसा सोचकर मेरी बद्रि अस्थिर हो जाती है तथापि आपके प्रति हमारो अचल भक्ति स्तुति करने के लिये निरन्तर प्रोत्साहित करनी दे योगीन्द्र ! माज अापके बाह्य एवं अभ्यन्तर मलोंके एकदम नष्ट हो जानेके कारण जिस प्रकार कि, मेधके पास
किरणोंकी स्वाभाविक छटा बिखर पड़ती है, उसी तरह अापके निर्मल गुण-समूह प्रकाशमान हो रहे हैं। स्वामिन यति पोपने इन्द्रिय विषय जन्य चन्चल सुखोंको क्षणभंगुर जानकर छोड़ दिया है तथापि यापकी इच्छा अत्यन्त उत्कृष्ट आत्म-मखकी प्राप्ति के लिये लालायित है । अतः आपको 'निरीह (इच्छाहीन) कैसे कहा जा सकता है। यद्यपि आपने स्त्री के शरीर को नितान देय. धणित एवं अस्पृश्य समझ कर उस पर से अपना अनुराग (प्रेम) हटा लिया है तथापि मूक्तिरूपी स्त्रीमें तो आपका सत्य
बना हा है, फिर आपको हम 'बीतराग' (प्रीति रहित) भी कैसे कह सकते हैं ? यद्यपि जिन्हें लोग रत्न कहा करते हैं जन पत्थरोंको आपने त्याग दिया है तथापि सम्यक दर्शन आदि महारत्नोंका आपने धारण कर लिया है फिर आपको त्यागी भी
से कहा जाय ? यद्यपि आपने क्षण भंगुर राज्य-सत्ता को पाप का प्राश्रय जानकर छोड़ दिया है तथापि नित्य, अनाशवान एवं मनपमेय श्रेलोक्य के विशाल राज्य पर एकाधिपत्य भी तो पाप ही स्थापित करने जा रहे हैं, फिर आप निस्पह कैसे रहे ? (यह निन्दा-स्तुति है।) हे जगत्के स्वामी, आपने इस संसार की चंचला लक्ष्मी का परित्याग करके लोकोत्तर सम्पत्ति मोक्ष लक्ष्मी को साप्त करनेकी इच्छा की है फिर आपको प्राशा रहित केसे समझा जाय? हे देव, यद्यपि आपने अपने ब्रह्मचर्य रूपी तेज बाणोंसे अपने शत्र कामदेव को नष्ट कर दिया है, तथापि कामदेव की स्त्री रतिको मापने विधवा भी बना दिया फिर आप कपाल कहां
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