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मोह महा परि विजय बखान, जसगुन गीत कला विज्ञान गायें ज्योतिष किन्नर देव, परम हुलास करें जिनसे ॥५१॥ ध्वजा छत्र छायो नभ मान बढ्यो प्रमोद गंगा उन्मान पट देवी श्री प्रादिक जहां दिनक्रमारिका माई वहीं ॥५२॥ उत्पादिक माहात्म्य कराय, वीजमान प्राकीर्णक शाम सितछत्र शिर शोभं जोय, दिपहि अंगभूषण जुत सोय ||२३|| किसुर असुरेश, सब विभुति वरनं नहि शेष पूरब दिश नंदन वन जान ले प्राये प्रभुको तिहि थान ।। ५४ ।। प्रभु उर परम विराग सुहाय, यारत रौद्र हनन जगराय शिव मारग साधन अनुराग, सुख कल्याण देन वड़ भाग || ५५ || देख सबै उत्साह अनेक भविजन मन कछु करें विवेक हैं अंभुज संपति सुख गेह, करौ असल वैराग सनेह || ५६ ॥ देख्यौ राज्यभार प्रभु छोड़ि देव जनित सुख त्यागे कोहि बालापने काम रिपु हन्यो, उर संवेग चढ़ायो धनी ||७|| यह विचार मन हर्ष बढ़ाय मन वैराग घर अधिकाय । मोह मदन आरक्षिको हने, हिरदे पंच परम गुरु भने । ५८|| कोई सूक्षम बुद्धी जीव भव सागर में स्त्यी सदीव | देख स्वर्ग सर्पाति सुख गेह, मन में सो चितवि शठ येह || ५६ मोह काम ये किहि विधि गर्म, तपसा दुख में कैसे रमं । सौ दारिद्री कुष्टी होय,
पार न पावं भवदधि सोय ॥ ६० ॥
एकत्व भावना – इस प्राणीको संसार रूपी वन में प्रवेला ही जन्म धारण करना पड़ता है। यह अकेले ही भटकता है और धकेले ही महान सुसका उपभोगी होता है। वेदना आदि दुःख भी इसे वे ही सहन करने पड़ते हैं, उस दुःख के भाग को कुटुम्बी जन नहीं बांट सकते । यमराजको मारसे यह अकेला ही रोता और चिल्लाता है, क्षण भरके लिये हिसादिक पाप TTE करता है । उसके फल स्वरूप नरकादि खोटी गतियां प्राप्त कर अत्यन्त दुःख भोगता है उसके साथ कुटुम्बी नहीं भोगते । इसे अकेले ही सभ्यत्वादि शुभ कर्मोका वंध होने से स्वर्गाद महान विभूतियां प्राप्त होती हैं। रत्नश्यादि के कारण इसे अकेले ही मोक्ष प्राप्त होता है। इस प्रकार सभी स्थलों गर एकत्व की भावना कर शान की प्राप्ति के लिये बात्मा का ध्यान करना चाहिये।
श्रन्यत्व भावना प्राणी तू अपने को सब जीवों से सर्वथा अलग समझ । जन्म मृत्यु कर्म सुखादि भी अलग मान ले। माता-पिता पुत्र, कुटुम्बी जन सभी अपने नहीं हैं। जब धन्तरंग यह शरीर भी मृत्युके बाद साथ छोड़ देता है, तब बहिरंग घर रवी आदि अपने कैसे हो सकते हैं ? निश्वय से पुद्गल कर्म कर उत्पन्न हुआ द्रव्यमन तथा अनेक संकल्प विकल्पों से भरा हुआ भाव मन दोनों प्रकार के बचन ये सभी आत्मा से पृथक हैं । कर्म और कर्मो के कार्य अनेक प्रकार के सुख दु:ख इस जीव के दूसरे स्वरूप हैं ।
इन्द्रियाँ भी ज्ञान स्वरूप श्रात्मा से पृथक हैं और ये जड़ पुद्गल से उत्पन्न हुई हैं, जोकि राग-द्वेषादि परिणाम जीवमयी मालूम होते हैं । ये भी कर्मों द्वारा किये गये कर्मों से उत्पन्न हैं- जीवमयी नहीं है, अन्य भी कर्म से उत्पन्न हुई वस्तुए सर्वथा आत्मासे भिन्न हैं । इस सम्बन्ध में अधिक कहने की आवश्यकता ही क्या सम्यग्दर्शनादि श्रात्म गुणों के अतिरिक्त अपना कोई नहीं है। मतएव हे योगीश्वरो ! तुम अपने ज्ञान स्वरूप आत्मा को पारीरादि से पृथक समझकर शरीर नाशके लिए मात्मा का ही ध्यान करो।
अशुचि भावना - यह शरीर धिर वीर्यसे उत्पन्न हुआ है। सप्त धातुओं और मलमुत्रादि से भरा हुआ है, भला ऐसे शरीर पर कौन बुद्धिमान आस्था रखेगा ? जिस स्थल पर भूख-प्यास बुढ़ापा रोगरूपी अग्नियां जला करती हैं, उस काय रूपी झोंपड़े में क्या सत्पुरुष रह सकते हैं। जिस शरीरमें राग-द्वेप कषाय कामदेवरूपी सर्प हमेशा निवास करते हैं ऐसे शरीर रूपी बिमें कौन अष्ठ ज्ञानी निवास करना पसन्द करेगा ? यह पानी शरीर तो अशुद्ध है ही, साथ ही अपने आश्रित सुगन्धित ब मादिको भी विकृत कर डालता है। जिस प्रकार से भंगीका टोकरा कही से भी अच्छा नहीं लगता, उसी प्रकार चर्मही श्रादि से निर्मित शरीर भी सुन्दर नहीं दिखाई देता ।
इस शरीरको पुष्ट करो ने दो में इसे भस्म होना ही है। अतः इसे तपस्या के द्वारोपण करना ही अत्युत्तम है । कारण अन्न आदि से पुष्ट किया गया शरीर रोग श्रादि दुखों को उत्पन्न करता है । पर यदि इसका शोषण किया जायगा तो इसे परलोकमें स्वर्ग मोक्षादि प्राप्त होंगे। यदि इस शरीर में केवलज्ञान यादि पवित्र गुण सिद्ध हो सकते हैं, तो इस सम्बन्ध में अधिक विचार करनेकी क्या बात है । ऐसा समझकर ज्ञानियोंको शरीर सुखकी कामना त्यागकर अविनाशी मोक्षकी
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