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तीन लोक में वस्तु जु सुन्दर, देखत विनशै सोई । अतिदुर्लभ गति कोटिन धरधर, नरभव थिरनहि होई ॥ कोई गर्वहि में खिर जाई, पाप उदय जब आवं । कोई बाल तरुण हो विमर्श, कोई जरा सतावै ।।६।। कोई पुण्य उदय जोबन लहि, धर्म हि साध संघारौ । कोई मुढ मोह मदमाती, दुर्गति भटकट भारौ।।। कोई रोग व्याधि कर पीड़ित, नाना दुःख सहतौ । कोई पुत्र कलित्र मोह वश, गह बन्दी खनवता ॥८॥ हयगय रथदल देखि विनश्वर, अम्रपटल सम सोई । लक्ष्मी राज्य चक्रवति आदिक, थिर न भई तह कोई ।। तातै सुधी जान जग भंगुर, तपकर मुक्तिहि साधौ । नित्य अनन्त सुक्खहि भु-जी, नित्य गुणन अवराधौ ।।८।।
इति अनित्यनुप्रेक्षा ज्यों बन भीतर हिरन इत्यादिक, सिंह कवलको नाख । तैसे या जग जीवित प्रानी, काल गहगको राखे । इन्द्र चक्रि हरिहर विद्याघर, राख छिनक नहि सक्के । पापुन सकल मीचकी चिन्ता, और शरण कह तो ॥५॥ मंत्र यंत्र तंत्रादिक औषधि, और उपाय घनेरौ। जब ही सन्मुख काल दिखानौ, भये वृथा सब हेरौं ।। ताते भविजन शरन धरौ निज, पंच परम गुरु चरना । है रक्षक दुर्गति तै राखत, शुभ गति साथी शरना ॥८३|| तप अरु ज्ञान जिनेश्वर पूजा, तपस्नत प्रादिक भावै । विश्व अनिष्टहि हनकर शरनहि, लै शुभगति पहुंचावै ।। चंडिक क्षेत्रपाल बहु आदिक, शरण मूढ़ जे बांछै । रोग क्लेश बहु दुःखहि लेकर, नरक परत कृत पाछै ।।४।। जे भव अशरण जानि जगत में, कुगुरु कुदेवनि कोई। है परमेष्ट धरम तप आदिक, देह दुक्ख खय साई ।। जो रत्नत्रय ग्रादि चरण लहि, मुक्ति पुरी में जावे । ताहि अनंते सुम्ब गुण पूरण, सांची शरण जू पावै ॥५॥
इति अशरण अनुप्रेक्षा द्रव्य क्षेत्र अरु कालहि, भावजु भव संसारहि पांचौ । ताको आदि र अंत न कोई, भ्रम भ्रम जिय पुख नाची ।। मुख दुख भय जड़ पातम तीनी, केवल दुःखहि भूजी । पंच प्रकार बना तर भूम, सिंह व्याघ्र हगुजौ ।।६।। सौदारिक अर वैक्रियिक आदिक, पंच शरीर धरती। तीन लोक में जेते पुद्गल, वर्तन अनुक्रम जतौ॥ इहि विधि वार अनंतो धर धर, अमियो कर्मन घेरो। द्रव्य परावर्तन यह वर्त, द्रव्य संसार सुडेरो ॥७॥
(द्रव्य परिवर्तन) मेरु सुदर्शन के तल हेठ हि, अष्ट गोष्ठी थन सोहै । तहं ते अष्ट दिशा तन धर धर, अघ ऊरध तन जोहै ।। चौदह राजू लोक प्रमाने, याके सकल प्रदेशा। श्रेणीवद्ध मरण जन्मांतर, क्षेत्र संसारहि भेषा ।।८८॥
(क्षेत्र परिवर्तन) उत्सपिणि अवसपिणि दोई, कोडाकोड़ी बीसा। कालचक्र मर्यादा इतनी, तिन समय न बोत्या सा ।। समय समय पर जन्म मरण जिय, अन्त उपज नहि लेख । अनुक्रम सकल संपूरण कीन, काल संसारहि भेखे ।
(काल परिवर्तन)
बह जलधारा तीक्ष्ण तलवार के सदृश सत्पुरुषों के विघ्नों का नाश कर देती है। वह दुःखों और असह्य वेदना का नाश करने वाली है। जो जलधारा भगवान के शरीर से लग कर पवित्र हो चुकी है, वह हमारे दुःख कर्मरूपी मल को हटाकर हमें पवित्र करे । इस प्रकार देवों के स्वामी ने भगवान का अभिषेक करके 'भव्यों का शान्ति हो, ऐसा कहा । उस सगन्धित (गन्धोदक) को देवों ने अपनी शुद्धि के लिए मस्तक में लगाया।
अभिषेक का उत्सव सम्पन्न होने के पश्चात् तीर्थकर इन्द्र और देवताओं द्वारा पूजे गये । उन महावीर भगवानकी दिव्य गन्ध मोतियों के प्रक्षत कल्पवृक्ष के फूल अमृत के पिण्ड रूप नैवेद्य, रत्नों के द्वीप अष्टांगधूप कल्पवृक्ष के फल, अर्घ पुष्पांजलि आदि
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