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लवणोदधि में चन्द्रहि चार, धातकि द्वीप हमा दश धार। कालोदधि जू व्यालिस माघ, चन्द्र बहत्तर पुष्कर आध ॥२५८।। सब इकस बत्तीस हि जोर, इतने हि रबि कहे बहोर । इन मादि ग्रह सबै बस्त्रान, व्यारा सहस छस परवान ॥२५६।। ऊपर सोरह कहै जु और, अब सब नखत गनौ तिहि ठौर । तीन हजार छसै छयानवे, कही भेद तारागण सबै ।।२६०॥ लाख अठासी तीस हजार, ऊपर सात सयाय जु धार । इतने कोडाकोड़ो तार, इकसे यत्तिस चन्द्र प्रबहार ॥२६॥
(अढ़ाई द्वीप तारा प्रक-१८३७००००००००००००००००) द्वीप अढ़ाई के सब तेह, मेरु पंच परदक्षिण देह । पहुकराध ते बाहिर जहां, संभूरमण उदधि अन्त तहां ॥२६२।। घंटाकार उ६ कर रहें, गदा जहां के नई ही लहैं । सहस पचासहि जोजन लेव, परकाली भाषी जिनदेव ।।२६३।। चन्द्र जहां हैं रात्रि सदीव, सूरज जहां दिवस है सीव । असंख्यात तिन कहै वखान, सोई जिन गृह को परमान १२६४।। इकसे दश जोजन नभ मांहि, ज्योतिप पटल भिन्न २ जांहि । मध्यलोक इमि वर्णन कही, जथा शास्त्र हिरदै सरदही ॥२६॥
ऊर्ध्व लोक का वर्णन।
मार्वलोक अब जो विख्यात, है उतंग सब राजु सात । पूरब अपर सूनो विस्तार, मध्यलोक तं बढ़ि क्रम घार ॥२६६॥ बदा स्वर्ग भर राज पंच, घट क्रम लोक अन्त इक संच । दक्षिण उत्तर सब ही सात. पृथक पृथक प्र. सनिय भांत ।।२६७।। (सौ) धर्म प्रथम ईशान जु दोय, ताहि पटल इकतीस हि होय । (वि)मान सकल सन्न साठ जु लाख, इक २ जिनवर भवन जु साख सनत्कुमार महेन्द्र जु नाम, सात पटल सोहै अभिराम । बीस लाख तह कहे विमान, सोई श्री जिनवर अस्थान ।।२६६! ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर कल्प, पटल चार सोहैं तह स्वल्प । विमान चार लाख सौ वास, श्री जिन चैत्यालयसो जास ॥२७०।। लांतव मरु कापिष्ट बखान, दोय पटल सोहैं प्रस्थान 1 सहस पचास विमान वसंत, सोई थी जिनगह निवसंत ।।२७१।। शुक्ररु महाशुक्र अभिराम, एक पटल सोहै सुख धाम । चालिस सहस हि सबै विमान, इक इक जिनगृह है परमान ॥२७२।। शतार सहस्रार दुइ स्वर्ग, पटल एक ताके बहुबर्ग । छह हजार तह कहे विमान, श्री जिनगृह जुत सवै बखान ।।२७३।। मानत प्राणत दोई थोक, पटल तीन सोहै वह लोक । हैं विमान पंचस इकताल. तिनमें इक जिन भवन विशाल ॥२७॥ पारण अच्युत कल्पहि जान, तीन पटल सोभै शुभ थान । इकस उनसठ ताहि विमान, तितने ही जिन भवन महान ॥२७॥ कल्प लोक इतलौं वरनयौ, अब अहमिन्द्र ब्रह्मदढ थयो । ग्रंबक तोन अधोगन लय, तीन पटल ताके अतनेय ॥२७६॥ (वि)मान एक सौ ग्यारह सोय, तितने ही जिनगृह अवलोय। मध्यम ग्रैविक पटल जु तीन, (वि) मान एकस सात प्रबीन ।।२७७॥ करच घेवक हैं वय पटल, (वि) मान इक्यानब सोहैं अटल ।सोई जिन गह लीजै जान, नव अन नृतर पन सुविमान ॥२७८।। ए सब शठ पटल जु भास, तिहि विमान चौरासी लाख । सहस संतानबे अरु तेईस, इक इक जिनमन्दिर सब दीस ॥२७६॥ तीन लोक के जिनगृह साख, पाठ कोडि पर छप्पन लाख । सहस संतान चऊस एक, ऊपर इक्यासी वर नेक ॥२०॥
गये तथा बन्दी और दीन अनाथों को योग्यता के अनुसार दान दे, उन्हें सन्तुष्ट किया गया । नगर को तोरण और मालाओं से खुब सजाया गया । बाजे और शंखको गम्भीर ध्वनि होने लगी। ऐसे ही नत्य-गीतादि सैकड़ों उत्सवों से वह नगर स्वर्ग जैसा प्रतीत होने लगा।
इस उत्सव से नगर की प्रजा और कुटम्बीजनों को भी बड़ी प्रसन्नता हई। देवेंद्र ने भी पुरवासी और नगर निवासी जनों को प्रसन्नता प्रकट करते हुए देखकर स्वयं प्रसन्नता प्रकट की। उस समय इन्द्र में गुरु की सेवा के लिए देवियों के साथ त्रिवर्ग फल का साधक दिव्य नाटक सम्पन्न किया । इन्द्र के नत्य प्रारम्भ होने पर गन्धर्व देवों ने पाच और गान प्रारम्भ किये । महाराज सिद्धार्थ पुत्र को गोद में लेकर बैठे और अन्य रानियां उनके आस-पास बैठीं। प्रारंभ में इंद्र ने जन्माभिषेक सम्बन्धी दृश्य दिख
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