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दशम अधिकार
मंगलाचरण
दोहा
भोग काम बिरकत' भये, गूण संबेग बढाय,। मुकति वधु अनुराग हिय, नमों वीर जिनराय ।।१।। द्वादश भावन विविध विधि, भावे प्रभ बैराग । तिहि अवसर लोकान्त सुर, पाये मन अनुराग ।।२।। सारस्वत आदित्य हूँ, वहिन बहर रुण चार । गर्दतोय पंचम कहे, तुषित छठम गुण धार ॥३॥ अब्याबाधन सातमी, रिपमेष्टक बसू जान । सब विमान ये पाठ कहि, तिनमें देव प्रमान ॥४॥ तिनकी संख्या लीजिए, चार लाख गन लेह । सहस बहत्तर जानिये, विशोत्तर अधिकेह ॥५॥
चौपाई ब्रह्म स्वर्ग के अन्तिम वास, लौकान्तिक शुभ नाम प्रकास । ब्रह्मचारिक उर सदा विराग, तीन ज्ञानधारी बड़भाग ॥६॥
धर्म प्रवर्तक बीर प्रभु ! करता तुम्हें प्रणाम । करो नष्ट मेरे सभी क्रोध मोह मद काम॥ जिनके द्वारा काम-क्रोधादि अंतरंग शत्रु जीत लिये गये है, जो तीनों जगत के हित के चिन्तक और अनन्त गुणों के समुद्र हैं, उन महावीर स्वामी के पाद-पद्मों में शतशः नमस्कार है।
पूर्व अध्याय में बताया जा चुका है कि, भगवान की सेवा के लिए सीधर्म के इन्द्र अनेक देवियों को राज-महल में नियुक्त कर गये थे। उनमें से कोई धायका काम करती, कोई वस्त्र आभूषण आदि से उनके अंगों को सजाती कोई अनेक
बालबाह्मचारी Lord Mahavira did not marry
--Prof. Dr. H.S. Bhattacharya : Lord Mahavira P. 13 वर्तमान कुमार की वीरता, रूप, गुण और सुन्दर युवावस्था देखकर अनेक राजा-महाराजा अपनी-अपनी कुमारियों का सम्बन्ध श्री वर्द्धमानजी से करने के लिए राजा पर जोर डालने लगे। माता त्रिशला तो इस बाट में थी ही कि कब मेरा लाडला बेटा जनाम हो और मैं विवाह करके अपने दिल के अरमान निकालू' । उन्होंने कलिंग देश के महाराजा जितशत्र की राजकुमारी यशोदा को अनुपम सुन्दरी, महागुरषों की खान और हर प्रकार से योग्य जानकर उससे कुमार वर्षमान का विवाह करना निश्चित किया। राजा सिद्धार्थ ने भी इस प्रस्ताव को सराहा । संसार की भयानक अवस्था को देखकर बर्द्धमान का वृदय तो पहले से ही वीतरागी था, यह कब कामवासना रूपी जाल में फंसना पसन्द करते? जब माताजी ने इसको स्वीकारता मांगी तो कूमार पद्धमान जी मुस्करा दिये और बोले--"माता जी! अधिक मोह के कारण आप ऐसा कह रही हो, संसार की ओर भी जरा देखो, फिनमा दुःखी है बह ?" रानी त्रिशला देवी ने कहा--"बेटा यह ठीक है, किन्तु तुम्हारी यह युवावस्था तो गृहास्थश्रम में प्रवेश करने की है, यशोदा से विवाह करके पहले गहस्थ धर्म का आदर्श उपस्थित करो, यह भी एक कर्तब्य है। फिर धर्मतीर्थ की स्थापना करना।" राजकुमार वर्द्धमान जी ने कहा-"मा ! देखती ष्टो, कुछ लोग भोग में कितने अन्धे हो रहे हैं। परउपकारता के लिए समाज में स्थान नहीं है ! आत्मिक धर्म को भले हए । स्त्री जाति की योग्य सम्मान प्राप्त नहीं है। दादों के लिए घमं सुनना पाप बताया जाता है। स्वाद के वश हिंसक यज्ञ होते हैं। ससार इन्द्रियों का दास बना हआ है। तो क्या मैं भी उनकी भांति भ्रान्ति में पड़ माँ की ममता भी वर्द्धमान जी कर्तव्य दृढ़ता के सन्मुख क्षीण हो गई।
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