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सदा सास्ते सबै जू सोय, सौ जोजन लम्बाई होय । अरु पचास विस्तार महान, पचहत्तर ऊंचे उनमान ।।२८।। तिनमें जिनप्रतिमा सोभंत, अष्टोत्तर शत ताहि गनंत । धनुष पांच से ऊंचो काय, समोशरण मण्डित समुदाय ॥२८॥ तिन सब प्रतिमा को करजोर, नवस कोड पच्चिस कोर । वेपन लख सत बीस हजार, नौस अड़तालोस समार ॥२५३।। सर्वारथ ते उचित रवन्न, मोक्ष शिला बारह जोजन्न । पटहावत सो गिरदाकार, ऊर्ध्व अणू . नीचे विस्तार ॥२८४॥
सिक्षशिला का वर्णन
पैतालीस लाख है सोय, मोटी वसु जोजन अवलोय । फटिक सरीखी उज्वल गनौ, तह ते बात वलय तनु सुनो ॥२८५|| पौने सोरहसौ धनु महा, और भेद अब सुनियौ तहां । ऊपर जहां छत्र प्राकार, मोटो सौ कोशशि इकधार ॥२८६।। जोजन लख पैताल विथार, गिरदामयी तहां तं सार । माखी पंख सम पतरी सोय, मोक्ष शिला सो लागी जोय ।।२८।। तन बातहि में तिष्ठ एम, भानु छिप्यो पानी शशि जेम । ता मधि अन्तरीक्ष तिष्ठही, सरब सिद्ध माथे सम सही ॥२८॥ सो त्रय अवगाहन परवान, उतकिठ मध्य जघन्य बखान । पौने सोरह से धनु तेह, ताके लघू भये जो येह ॥२८६।।
व और सतासि हजार, तिनहि भाम, पन्द्रहसे धार । सबं भाग खाली अघ रहै, सवा पांचरी धनुषहि लहै ।।२०।। सो उतक्ठि अवाहनोय, बहूबलि सम तन जिहि जोय । अब जघन्य के सुनिये भेव, पूर्वहि वर्ण लघु धन तेव ॥२१॥ तिनहि चतुरगुन हाथ बहोर, साढ़े इकतिस लाखहि जोर । ताक नव लख भाग करेह, अधो भाग सब खाली तेह ॥२६शा ऊर्ध्व भाग इक हूंठहि हाथ, सो जघन्य अवगाहन नाथ । चतुरथ काल लहै शिव सोय, नमई वर्षः केवली होय ॥२६॥ मध्यम अवगाहन बहु भेव, सब विदेह तन पंच शतेव । भरतराबत ग्रोर अनेक, ऋमसौं जानो पागम टेक ||२६४॥ मध्यम अवगाहन बहु यहै, चर्म शरीर धार शिव लहै । तामें अस्थि चरम नख केश, यहै ऊन निज तनतें शेष ॥२६५।। घनाकार सुन ऊरध लोक, जुदे-जुदे भाषौ सब थोक । मध्यलोक सोधमोह जुगा, साथै उनिस हि राजु अटल ।।२९६|| सनत्कुमार महेन्द्र बखान, साढ़े सैतिस राजू जान । ब्रह्म ब्रह्मोत्तर स्वर्ग जु दोय, साई सोरह राजू होय ॥१७॥ जुगल कह्यौ लांतव कापिष्ट, साई सोरह राजू षिष्ट । शुक्र महाशुक्र अभिराम, साढ़े चौदह राजू जाम ||२६॥ शतार सहस्रार ए दोय, साढ़े बारह राजू होय । आनत प्राणत जुगलहि नाम, साढे दश राजू गुणधाम ||२६|| पारण अच्युत स्वर्ग वखान, साढ़े वसु राजू उन्मान । अहमिंद्र अरू मोक्ष पर्यन्त, ग्यारह राजू सब निवसंत ।।३००।। इहि विधि घनाकार हैं सर्व, इकस सैतालिस गनधर्व । अध करध सबको कर लेख, राजू जोजन महा विशेष ।।३०१।। पूर्व सात इक पंचहि एक, चौदह भये तिहि चौ त्रय लेख । दक्षिण सप्त गुन साढ़े चौबीस, ऊंची चौदासौ कर वीस ॥३०२।। सो त्रय सय अरु तैतालीस, चनाकार यह विधि अवनीस । तीन लोक में पृथिवी जेह, किमपि भेद बरणों कछु तेह ॥३०॥
आठ पृथ्वियों के नाम
मारक, भावन, वासी सब मानुष, पृथ्वी ज्योतिष, फबै । कल्पलोक, अरु घेवक ठाठ, (स) बर्थिसिद्धि तहं मोक्षजु पाठ ।।३०४॥
लाया। पुन: जिनेन्द्र के पूर्व जन्म के अवतारों को नाटक की तरह दिखलाता और नृत्य करता हुमा इन्द्र कल्पवृक्ष-सा प्रतीत होता था । रंगभूमि के चारों ओर नृत्य करता हुआ इन्द्र विमान की भांति शोभायमान हुमा।
इधर इन्द्र का ताण्डव नृत्य प्रारम्भ था और उधर देवगण भक्तिवश इन्द्र पर-वृष्टि कर रहे थे। नृत्य के साथ अनेकों सुमधुर बाजे बजने प्रारम्भ हुए। किन्नरी देवियां भगवान का गुणगान करने लगीं। इन्द्र अनेक रसों से मिश्रित ताण्डव नत्य कर रहा था। हजारों भुजाओं वाले इन्द्र के नत्य से पृथ्वी चंचल हो उठी। इन्द्र कभी एक रूप कभी अनेक रूप कभी स्थल और कभी सुक्ष्म रूप धारण कर लेता था।क्षण भर में समोप क्षण भर में दुर और क्षण भर में ही आकाश में पहुंच जाता था। इस प्रकार
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