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दोहा
गोलक इक पृथ्वो कही, नरकमांही उनबास । आवन षोडश अवनि जुत, मध्यलोक इक बास ॥३०॥ ज्योतिष नभमें तिष्ठ हो. शठ देव महोस । मोक्ष एक, सब जोरि इमि, इक सम अरु उत्तीस ||३०६॥
पांच पंतारूनानों के नाम प्रथम नरक पहली पटल, द्वीप अढ़ाई जाल । ऋजु विमान सर्वार्थ सिध, मोक्ष पांच पंताल ॥३०७॥
सौपाई
हि प्रकार लोकोत्तम जान, सूख दुख दायक है जगथान । छह द्रव पनि जुन भरयो सदीब, ज्यों घट मुई शर्करा धीर ।।३०।। पदगल जीव मिलो भ्रम ओर, बंध्यो फिर कर्मन की डोर । सुर नर नारक पशुगति माहि, त्रस थावर में कल्यौ सदाहि ।।३०६।। अजयन करन लब्धि को पाय, सुपन सम संसार दिखाय । रत्नत्रय तप साधौ जतन, कर्म दाहि कर मुक्तिहि धरन ।।३१०||
इति लोकानुप्रेक्षा दलभ ज्ञान चतुर्गति माहि, भ्रमत मानुषगति पाहि । जैसे कोई दरिद्री रहै, कर्म संजोग रत्ननिधि लहै ।।३११।। अरु उत्तम कुल जन्म जु होय, प्रारजखण्ड मुक्तिपद सोय । प्रायुपूर्ण पंचेन्द्रिय सुक्ख, निर्मल मत घर कोई न दुःख ।।३१।। मन्द कषाय तजे मिथ्यात, विनय गुनन जुत है विख्यात । दुर्लभ देव शास्त्र गुरु पाहि, कल्प वेल फैलो जगमाहि ।। ३१३।। समकित दरशन ज्ञान जुधीर, तप इत्यादिक लहि भव वीर | सब सामग्री दुर्लभ पाय, मोहादिक हनि मुक्ति लहाय ॥३१४।। जो मिथ्यात प्रभाद कराय, बूढ़े भव वारिधि में जाय । पापहि तजि चढ़ि धर्म जहाज, मुक्तिपुरी को पावं राज ॥३१५॥
इति बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा पाल धर्म जतन कर जब, मुक्ति महासुख पावै तवे । धर्म सहित जो मरण करेह, भव भव सुक्ख लहे घर नेह ।।३१६॥ भव समुद्र में बूडत जीव, धर्म जहाज पार लहि सीव । धर्महि ते तीर्थकर होय, धर्महि तं चक्रीपद सोय ॥३१७॥ उत्तम क्षम अरु माधंव अंग प्रार्जव सत्य शौच निरभंग । संजम तपहि त्याग मन प्रान, आकिंचन ब्रह्मचर्य बखान ||3811
इति दशलक्षण धर्म नाम गीतिका छन्द
द्वान तीरथ करहि जप तप, व्रतहि जुत भुवि शयन है। पुनि ध्यान धर वनवास, पुनि जन प्राश शिवपद को चहै। कोप अगनि न बुइयो मनकी, काजं सब निसफल बहै; जब हि सब जिय भजहु धीरज, अंग उत्तम क्षम यहै ॥३१६।। जाति कुल बल रूप प्रभुता, लाभ विद्या तप लयो; वह अष्ट मद जुत मत्त, ज्यों गत जगत सब नीचौ ठयो। जब हि मान विध्वंस कोनौ, जीव सब रक्षित भयौ; भजहु समता अंग मार्दव, मोक्ष मारग पद दयौ ॥३२०।। आदि अन्त जु जगत भ्रम भ्रम, कष्ट कर मानुष भयो; तदपि माया जुत फिरै जन, विषय हित जग वंचियो। पार्जवंग हि शुद्ध मन जव, दान प्रत प्रभु पूजयो; कुटिलता तज यात्म भज, जो शिबहि सुख सो रच्चयो ।।३२।।
इन्द्र का नाटक बड़ा ही मनोरंजक और प्रभावोत्पादक हुमा । साथ-साथ देवांगनाओं के नृत्य तो और भी आकर्षक हुए। वे बड़ी लय के साथ माती और हाव-भाव के साथ नृत्य करती थी। उनमें कोई ऐरावत हाथी के ऊपर इन्द्र की भुजाओं में से निकलती और पुनः प्रवेश करती हुई कल्पवेली के समान प्रतीत होती थीं। कोई अप्सराये इन्द्र की हस्तांगुलि पर नाभि रख नृत्य करने लमों। इन्द्र की प्रत्येक भुजा पर नृत्य करती हई अप्सरायें सबको प्रसन्न करने लगीं।