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विदुत कुमार तृती सरबहै, लाख छिहतर मंदिर ल। सुपर्ण कुमार तुरी हैं देव, बहतर लाख विमान कहेव ॥१४६।। वानकुमार व मैं जान, लक्ष छयानवे तहां विमान । मन नित कुमार छठे सुन भेव, लाख छिहतर ग्रहा गनेव ।।१४७।। उदधि कुमार सप्तमै होइ. लाख छिहतर मंदिर माइ। दोप कुमार प्रष्ट मै जान, लाख छिहतर ताहि विमान ॥१४८।। अगनिकुमार नदम गुणधार, लाख छिहतर गृह अवधार | दिगकुमार दशम भवनेव, लक्ष छिहतर ग्रहगन लेव सर्व भवन दश को कर जोड़, बहत्तर लाख जु सात करोड़। इक इक जिन मंदिर तिन सबै प्रतिमा इकस पाठ ज फवै ।। १५०।। अष्ट प्रातिहारज जल सबै, तिनको चन्दन कीजै प्रब । मेरु तर ते जानो सोय, अधो लोक मरजादज होय ॥१५।। राज सात ऊंचाई लेव, तको घनाकार सुन भेव । भवन समेत नरक इक जान, दश राजू को कहीं निदान ।।१५२॥ दजी सोरह राज ठगौ, तीजो वाइस लौं वरनयो। चौथो अष्टावीस बस्नान, पंचम चौतीसहि उनमान ।।१५३ ।। छटम सानमौं राजू चाल, गोलक मूल छयालिस पाल । यह विधि क्रमसों लीजें जोर, जहं है थान घनाघन रोर ॥१५॥
दोहा अघो लोक घनकार सब, इकसै छयानव तेह । राजसौं गन लीजिये, भ्रम नाशन सब एह ।।१५।।
मध्यलोक का वर्णन
चौपाई मध्यलोक अब सुनौ बखान, पूरब पर इक राजू जान । दक्षिण उत्तर सात गनेह, तीन तीन दुइ दिशा सुनेह ॥१५६।। प्रस नाडी भीतर उनमान, राज एक सर्व परबान । द्वीप समुद्र असंख्य सु नाम, जम्बूद्वीप मध्य अभिराम ।।१५७|| ताके मध्य सुदर्जन मेर, लवण समुद्र बहे चहुं फेर । सो वर्णन पूरव वरनयो, पुनर उकन सो फिर नहि भयौ ।।१५८।।
घातकीखण्ड द्वीपका वर्णन
ताको घेर धातकी द्वोप, चार लाख जोजन सु महीप । तामें पूरव पश्चिम जोय, विजय प्रचल हैं मेरु जु दोय ॥१५६।। ताको कछु वर्णन को लहौ, जिनवाणी जैसो सरदहौ । पूरब दिने पृथ्वी है इती, लबणहित कालोदधि मिती ।।१६०॥ चार लाख चौड़ी उन्मान, ताके मध्य विजयगिरि जान । सहस चुरासी ऊची सोय, सब विभूति प्रथमहि वत होय ।।१६।। करते तहां विदेह सहै, पूरब' अमर दोय दिशि बहै। दक्षिण उत्तर इक्ष्वाकार, दोय मेरु के भेड़ विचार ॥१६२१॥ भरत दोय ऐरावत दोय, ताके मध्य हि इक इक सोय । लम्बे चार लाख परवान, ऊंच विथार निषधसम जान ||१६३।। तापर इक इक जिनवर गेह, अष्टोत्तर शत प्रतिगा जेह । दक्षिण इक्ष्वाकारहि निकट, भरतक्षेत्र षट खंडहि दिकट ॥१६४।।
देव ! कल्याण की कामना रखने वाले लोगों का तुम्हारे द्वारा ही कल्याण होगा। तुम मोहके गहर में गिरे हुए व्यक्तियों के लिए सहारा हो । तुम्हारी अमृतमयी बाणी मोह-शत्रुका विनाश करेगी। तुम धर्म-तीर्थ रूपी जहाज के द्वारा भव्यजीबों को मंसार-समुद्र से पार उतारोगे। नाथ ! आपकी बचन रूपी किरणे जीवों के मिथ्याज्ञानरूपी अन्धकार का सर्वथा विनाश करेंगी, इसमें सन्देह नहीं । स्वामिन आप केवल मोक्ष प्राप्ति के उद्देश्य से ही नहीं उत्पन्न हए हैं, आपका उद्देश्य मोक्ष की आकांक्षा रखने वाले जीवों को मार्ग दिखलाना भी है। पाप सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय की वर्षा करते हुए सत्पुरुषों को निर्मल बनायेंगे। प्रापका जन्म धारण सर्वधा स्तुत्य है।
महाभाग ! मोक्ष रूपी स्त्री आपमें प्रासक्त हो रही है । भव्य जीव तो आपकी प्रतीक्षा करते ही हैं। वे बड़े प्रेम और भक्ति के साथ आपकी चरण सेवा के लिए सन्नद्ध हैं। वे आपको मोह रूपी महायोधा के विजेता, शरण में आये हए के रक्षक कर्म रूपी शत्रुओं के बिनाशक और मोक्ष मार्ग प्रशस्त करने बाल मानते हैं। प्रभो, वस्तुतः अाज हम अापका जन्माभिषेक कर अत्यन्त कृतार्थ हो गये और आपका गुणानुवाद करने से हमारा मन अत्यन्त निर्मल हो गया है।