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अष्टावीस सहस गन तेह, चार शतक उनतिस अधिकेह । इतने जोजन कहै प्रमान, दून दून पर्वत क्षेत्राने का गंगा सिन्ध मूल विचार, त्रय शत अरु पैतालहि धार । कालोदधि मिलि ते दशगुनी, पुहकर समुदरली बिसगुनी ॥१८७।। दगन दगन सब लोजौ जोर, इहि विधि पूरब दिशकी अोर । सो पश्चिम जानो अवलोय, विधुन्मालो गिरितहं जोय ।।१८८।। पुरव वत वर्णन अवधार, नदी चतुर्दश भेद विचार । पूरब पश्चिम की पहिचान, सात सात कालोदधि थान ।।१५।। सात सात मनषोत्तर फोर, पहकर उदधि मिली सब जोर। पुहकरार्थ जिनगृह उत्कृष्ट, इकसे अठावन जग दिष्ट' १६॥ और विभति पूर्ववत सोय, लघमति कवि दर्णन नहि होय । पुहकर उदधि द्वीपको घर, जोजन वत्तिस लाख जु फेर ।।१९।। निर्मल जल गंगावत वार, जलचर जीव न होंहि लगार । ताको घेर जु वारुण द्वीप, चौसठ लख विस्तार महीप ॥१९२१५ ताको घरहि वारुण सिन्ध, जोजन एक कोड़को लिन्ध । अरु अठ्ठाइस लाख प्रमान, इतनौ गन विस्तार महान ॥१९३।। तहंत क्षीर द्वीपवर नयौ, दोय कोड़ छप्पन लख ठयौ । ताको क्षीरोदधि चहुं फेर, पांच कोड़ बारह लख हेर ॥१६॥ फिरि दधिवर 'द्वीपहि उन्माद, दश कोड़ी चोबीस बखान । दधिवर उदधि घर के सीइ, जोजन बीस कोड़ कर जोर ||१६|| यह अडताल लाख निरधार, इतनी है ताको विस्तार । तहं से द्वीप इक्षुवर जान, जोजन चालिस कोड़ बखान ||१६|| लाख छयानवे ऊपर धार, गनि सब लेह तास विस्तार । उदधि इक्षुवर ताहि घिराय, इक्यासी गन कोड़ लहाय ।।१९७|| लाख बाम है जो और, यह विस्तार कीजियो ठौर । तह तै अष्टम द्वीप लहंत, नंदीश्वर नामहि निवसन्त ॥१६॥ एक अरब अर त्रेसठ कोड़ लाख चुरासी जोजन जोड़ । इतनौ गनिथे तिहि विस्तार, अब वरनौं लम्बाई सार ||१६| सप्तम उदधि अन्त निकटेह, सो भू गिरदाकर गनेह । नव अर्वहि सु विलालिस कोड, लाख पंचावन जोजन जोड़ ॥२०॥ मध्यद्वीप लम्बाई जान, गिरदाई सब गुनहु सुजान । चौदह अर्व चहत्तर कोड़, लख सैतालिस जोजन जोड । द्वीप अन्त की परिधि गनेह, सब उनईस जु अरब भनेह । पैसठ कोड़ निन्यानव लाख, द्वोपहि तोन भेदकर भाख ॥२०॥ घनाकार अब धरनौं जोर, बीस अंक लिखिये तिहि और । दोय लाख इकताल हजार, पंच शतक सतहत्तर पार ॥२०३।। इतनै कोडा कोड़ी जान, ऊपर और सुनो बुधवान । सोरह लख अड़ताल हजार, इतने कोड़ गनों सविचार ।।२०४।।
(२४१५७७१६४८००००००००००) ता में चारों दिश शोभंत, बावन चैत्यालय जिन संत । पूरब दिश वरनी कछु तेह, अंजनगिरि पर्वत इक जेह ।।२०।। नील वरण इक शोभा रंग, सहस चुरासी जोजन तुग। इतने ही गिरदा विस्तार, ताके मधि इक जिनमह धार ।।२०। गरिके चहुं दिश बापी चार, लाख महाजोजन विस्तार । जलकर पूरित पहुप सरोज, चार घाट डिम जूत जोत ॥२०॥ वापिन मधि दधि मुख इक लेख, दश हजार उत्तंग बिशेख । सो विस्तार को घर लीक, उज्ज्वल' इक इक जिनगह ठीक।२०।। भीतर बापी घाटन माहि, द्वैव रतिकर पाठ गनाहि । रक्त वरण शोभा जुत सोय, जोजन सहस एक अबलोय ॥२०॥ इक इक जिनबर भवन समेत, ऐसे रह पूरब दिश हेत । तेरह दक्षिण पश्चिम गनो, तेरह उत्तर दिश जुत भनी ॥२१०॥
देव ! मैं आपकी इसलिये स्तुति नहीं करता कि मुझे तीनों जगत को संपदा प्राप्त हो, बरिक मुझे ऐसी संपदा प्रदान करो, जिससे मोक्ष का मार्ग सुलभ हों। वस्तुतः इस संसार में आपके सदृश दूसरा कोई दाता नहीं है। इस प्रकार महावीर स्वामी की स्तुतिकर सौधर्म के इन्द्रने व्यवहार की प्रसिद्धि के लिए उनके दो नाम रख दिये 1 कर्म-शत्रु पर विजय प्राप्त करने के कारण 'महावीर' और सद्गुणों की वृद्धि होने से 'वर्द्धमान' नाम रखे। इस प्रकार भगवान का नामकरण कर इन्द्र ने देवों के साथ उनको ऐरावत हाथी पर बिठा कुण्डलपुर की ओर प्रस्थान किया। देवों की सारी मण्डली बड़े उत्सव के साथ कुण्डलपुर में पहुंची। उस समय सारा नगर देव-देवियों से भर गया। पश्चात् इन्द्र ने कुछ थोड़े से देवों को साथ लेकर राज भवन में प्रवेश किया । वहां अत्यन्त रमणीक गृह के प्रांगन में रत्नों के सिंहासन पर शिशु भगवान को बिठा दिया। अपने बन्धु-बांधवों के साथ महाराज सिद्धार्थ अनुपम गुण कांतियुक्त पुत्र को देखने लगे।