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सब बावन पर्वत विस्तार, ऊंचे लम्बे ढोलाकार । नन्दा नन्दोत्तर हैं मादि, महावापिका षोडश गादि ।।२११|| तहां इन्द्र जुत पावें देव, नन्दीश्वर द्वीपहि जिन सेव । गेर द्वीप कुण्डल आकार, कुण्डल गिरि पर्वत अवधार ॥२१॥ दश हजार जोजन सु उतंग, दोसै चालिस अधिक सुसंग । अरु विस्तार जु पर्वत शीस, सहस पचत्तर दास वोस ।।२१३॥ चारहं दिश जिन मन्दिर चार, कंचनमय शोभा अधिकार । प्रावहि विबुध दरशको जहां, इन्द्र सहित जिन बन्दन तहां ॥२१॥ तेरम द्वीप रुचक वर फेर, नाम रुचकगिरि पर्वत घेर। सहस नुरासी ऊंचौ भार, इतनी जोजन महा विचार ॥२१॥ चार दिशा जिनगृह चहूं संग, प्रातिहार्य जुत प्रतिशोभंत । छपन कुमारी देवी लसै, रुचकवासिनी जिनवर जसै ॥२१६।। तह ते द्वीप असंख्य जु भये, संभूरमण अन्तमौ ठये । ताके मध्यजु गिरदाकर, नामेन्द्रहि पर्वत अतिभार ||२१७।। मनुषोत्तर ते परे विचार, नागेन्द्रहि के उरै सम्हार । भोगभुमिवत पृथ्वी कही, तिरयं च हि हिमवत सम सही ।।२१८।। प्राधे द्वीप कर्मभू सोय, विकलत्रय जलचर जिय होय। ताको घेर समुद्र महान, तिमको कळू सुनो उनमान ॥२१॥ लवणोदधि बत सब व्यवहार, मध्यलोक मर्यादा सुधार । द्वीप समुद्र असंख्य प्रमान, तिनको कळू सुनो उन्मान ॥२२०।।
असंख्य प्रमाण ।
राज एक भाग वस कर, तामें चार मेरु ते पर । संभूरमण उदधि दो भाग, संभरमा दीप इक लाग ।।२२।। भाग एक दधि द्वीप प्रसंख्य, ताको किमपि कहाँ निरशंक। जम्बूद्वीप समानहि कुण्ड, गहरो एक सहस को मण्ड ।।२२२।। प्रथम शलाका कुण्ड प्रमान, प्रतीशलाका दूजो जान । महाशलाका ती नौ कयो, अनवस्थित मारहि चउ लयौ ॥२२३।। ताके सरसों को परमान, अंक छियालिस गन बुधिमान । उनिस सतानवे ग्यारह हाल, उनतिस अड़तिस पर पैताल ||२२४।। तेरह सोलह अंकहि धयौं, छति स पन्द्रह वार जु कयौं । उक्त अंक हिरदै सरदहो, निर्मल समकिल मनमें लहो ।।२२५।। (१९६७११२६३८४५१३१६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६१२) प्रथम गर्त सरसों भर लयौ, द्वीप समुद्र इक इक डारयो । जब वह कुण्ड रीत सब जाय, दोय रहै सौ करहि उपाय ॥२२६।। एक सरस राखै वह कुड, एक घर दुर्ग में मण्ड । जिहि द्वोपहि में सरस निसर्त, तेही द्वीप भरं वह गर्त ॥२२७।। सो फिर सरसों भर जु चलाय, एक एक सो डारत जाय । फिर वह गर्ता में इक रहे, सोय प्रथम कुंडहि धर तबै ।।२२८॥ वही द्वीप मेकूण्ड भरेय, फिर सरसों इक इक हारेय । पीछे एक रहै जब लोय, सो पहिले में डारै जोय ॥२२६।। यह विधि करत कुण्ड वह भरे, तब इक सरस दूसरे करै । यह प्रकार जब दूजो भरे, तब इक सरस तीसरं धरं ।।२३०॥ एही विधि सों तीजी भर्ण, पूरव रीति कर सो पूर्ण । संभु रमण समुद्र ली अन्त, नामावलि यह जानौ संत ।।२३।। सो तिर्यच लोक यह जास, अरु व्यन्तर देवनको बास । शिन विमान है अनसंख्याल, एक एक जिनगृह विख्यात ।।२३।।
दोहा
चैत्यालय उत्कृष्ट जुत, मध्य लोक परमान । चट सय अंठायन प्रमिति, व्यन्तर अधिक बखान ॥२३३॥
इन्द्राणीने' जाकर मायामयी निद्रा में लीन महारानी को जगाया। उन्होंने बड़े प्रेम से प्राभूषणों से युक्त अपूर्व कान्ति वाले पुत्र को देखा जगत पिता की माता को इन्द्राणी सहित इन्द्र को देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने समझ लिया कि ग्राज हमारा मनोरथ सिद्ध हो गया। इसके पश्चात् ही सब देवों ने मिलकर माता-पिता को वस्त्राभूषणों से अलंकृत कर उनकी विधिवत पजा की। इन्द्र ने बड़ी श्रद्धा के साथ माता-पिता की स्तुति की। उन्होंने कहा- तुम दोनों संसार में धन्य हो, तुम श्रेष्ठ पुण्यो और सब में प्रधान हो । तुम विश्व के गुणी और विश्व पिता के माता-पिता हो।
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