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चौपाई प्रभु आदिनाथ तें होई, इकवीस जिनेश्वर सोई । बहु अायु लै भोगजु कौनौ, आखिर तप कर शिव लीनौ ॥५८।। नेमि पारस घन्य जु दोई, घटि प्रायु बाल तप होई । तप साध्यौ मुक्तिहि जाई, सो हम अब क्षिन न महाई ||५|| वे काल रहे अब नाही, त्रय पल्य आयु सुख माही। अब आयु बहत्तर बरसा, तहं तीस गये वे सरसा ॥६०।। लघु प्रायु सु जे जगरूढ़ा, रमयंति तपो बिन मूढ़ा । चितन त्रय ज्ञान जु नैना, थिति गेह बिना सुख चैना ॥६॥ किम ज्ञान सधारण इच्छ, मक्ति श्रीको नहि वंछ । है ज्ञान सफल तेहीको, चारित तप दतु जेही बह ज्ञान विफल कर तेसा, जो प्रकट करै नाहि लेशा । द्रग देखत परहि जू कूपा, ते चक्ष वृथा घर रूपा ॥६३।। परै मोहकप में जाई, घर ज्ञान वृथा जग माई । कह तीन ज्ञान धर लीनौं, संसार बढ़ावन कीनौ ॥६४।।
दोहा यज्ञानहि ते पाप कर, शान लहै घट जाय । ज्ञान पाय पापै गहै, सो क्यों छट भाय ॥६॥
चौपाई
जान पाप कारज न करेय, शोभित ज्ञानवंत पुरुषेय । प्राण गये कौ संशय नाहि, निन्द्य करम मोहादिक पाहि ।।६६।। राज द्वेष दुर्धर चिरकाल, दुर्गति घोर दुःखको शाल । भ्रमण करै, प्राणी परवीन, सुख नहि रंच प्रकट है दीन ॥६॥ ताते ज्ञानी मोह जु शत्र, हने ज्ञान के खडग जगत्र । शक्ति पाय जो हनै न ताहि, तो फिर दाव न दावं काहि ॥६॥ बालपन तप साधे सुधी, जीवन लहै हाय मन कुधो । तातै अव कीजे तप काज, मुक्ति पुरीको लीज राज ॥६६॥ जीवन भूप काम की फौज, पंचेन्द्रिय है तिन में मौज। जीत तहं दुर्गति को देश, धरै मोह जोधा प्रादेश ॥७॥ जीवन गये जरा तन आय, बल अरु दीप्ति सब जर जांय । नैन कान कर राखै मन्द, तब पछिताय परै जम फन्द ||७१॥ अब तप लैन विना न सुहाय, विषय शत्रु को देउ बहाय । यह चिन्तवन करी प्रभु सोय, राज्य भोग निःस्पृह मन होय ॥७२॥ मागार राजश्री तज्यौं, तप उद्यम कर मुक्तिहि भज्यों । काल' लब्धि यह दुर्लभ पाय, सुख निधान संवेग उपाय ।।७३।।
दोहा श्री सन्मति त्रय ज्ञान मय, द्वादश प्रेक्षा चित । संवेगादिक भाव घर, आतम कार्ज लहत ॥७४।। है अनित्य वस्त्वादि जग, शरण न दीसै कोय । संसारहि भ्रम एकलौ, अन्य जीव तन सोय ।।७।। अशुचि अपावन पोतरा, आस्रव कर्म अधार । संवर कर निर्जर झर, तीनहु लोक मंझार ॥७६।। दुर्लभ दुर्लभ पाइये, मानुप जन्म जिहाज । घरमहि लगि पारहि लग, अपर भवौदधि माज ॥७७॥
बारह अनुप्रेक्षानों का चिन्तवन
जोगीरास छन्द
काललब्धि श्री वीर जिनेश्वर, पापुन मनहिं विरागे । राज समाज भोग इत्यादिक, ते सब वेरस लागे ।। प्राय काल के मुख में खेलै, जोबन घट हि जरासौं । रोग अनेक देह में व्यापति, छिनभंगुर सब पासौं ॥७॥
स्मान की जल धारा भगवान के शरीर का स्पर्श कर अत्यन्त पवित्र हो गयी। पुण्य प्राप्त करने वाली और संसार की इच्छा पति करने वाली बह जलधारा हमें और भव्य जीवों को मोक्ष लक्ष्मी प्रदान करे। जो जल धारा तण्यासव जल धारा समान मन-वांछित पदार्थों को प्रदान करने वाली है, वह समस्त भव्य जीवों की इच्छित वस्तुओं को प्रदान करे।
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