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धर्मसों सुर इन्द्र सुख लहि, धर्म गुण वारिधि भर । धर्म हित तिहुँ लोक जीवन, धर्मतें शिवपद घरे॥ धर्म भव दुख नाश करता, धर्म जग माता पिता । धर्म पण्डित बुद्धि उपजै, धर्म तारण तरणता ।।१२।। धर्म तिहुं जग वीर है, बहु धर्म तीर्थकर धनी । धर्म गुण सर्वज्ञ निर्मल विश्व जग बड़ामनी ।। कल्याण सुख उपमा रहित, वृष कर्मशत्रु विनाशनी। 'नवलशाह' प्रणामि धर्म हि, मन वच तन पावनी ॥१२१।।
उस सौमनस वन से छत्तीस हजार योजन की ऊंचाई पर अन्तिम चौथा पाडुक्क वन है। वहाँ जिन चैत्यानय वृक्षों के ऊंच-ऊचे समूह थे। उस वन की सुन्दरता अपूर्व थी। धन के बीच में एक चूलिका है । वह चालिस योजन ऊंची है । उसी चलिका के ऊपर स्वर्ग है । मेरु की ईशान दिशा में सौ योजन लम्वी, पचास योजन चौड़ी, आठ योजन ऊंची एक पांडुक नामको शिला है। वह सिद्ध शिला चन्द्रमा के समान सुशोभित है। छत्र, चमर, स्वस्तिक, दर्पण, कलश, ध्वजा ठोना पंखा ये प्रप्ट मंगल द्रव्य उस शिला पर रखे हुए थे।
शिला के मध्य भाग मेंबडूर्य मणि के सदृश रंगीन एक सिंहासन है। उसकी लम्बाई, ऊंचाई और चौड़ाई प्राधा प्रमाण है। जिन भगवान के स्नान से पवित्र रत्नों के तेज से ऐसा प्रतीत होता है कि, मानों समेह को दूसरी चोटी हो। उसने ठोक दक्षिण की ओर सौधर्म का दूसरा सिंहासन है । और उत्तर दिशा की ओर इन्द्र के बैठने का स्थान है । सौधर्म स्वर्ग के इन्द्र ने देवों के साथ महोत्सव सम्पन्न करते हुए भगवान को स्नान कराने के उद्देश्य से उसी शिलापर विराजमान किया। देवराज ने प्रथम पर्वत राज की परिक्रमा की।
इस प्रकार देवेंद्र ने पुण्योदय से बड़ी विभूति के साथ अन्तिम तीर्थकर को शिलापर बिठाया। अत: यदि भव्यजन ऐसी सम्पदा और सख की आकांक्षा रखते हैं तो उन्हें सोलह कारण भावनाओं से निर्मल पुण्य का उपार्जन करना चाहिए । तोर्थकरादि सम्पदा प्राप्त कराने में ही सहायक होता है। पुण्य से इस जगत में पवित्रता की बद्धि होती है। पुण्य के अतिरिक्त इस जगत में दूसरी कोई वस्तु सख प्रदान कराने वाली नहीं है। इस पुण्य का मूल कारण व्रत है। प्राणियो को पुण्य के बल से ही अनेक गुणों की प्राप्ति हुमा करती है।