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नवम अधिकार मंगलाचरण
दोहा बर्धमान पदकमल नमि, जूग कर घर निज शीस । गुणरामुद्र गंभीर अति, सो गुण देउ कृपीश ॥२॥ बालचरित आगम अगम, को कहिलै समरत्थ । अलप बुद्धि संक्षेप कह, सकल कीति ले अत्थ ॥२॥
वर्धमान जिनेन्द्र की वाल्यावस्था का वर्णन
चौपाई श्री सन्मति प्रभु शोभित एव, मति श्रत अवधि त्रिज्ञान समेव । माता पय नहिं पीवे कदा, हस्त अंगूठामृत चखि सदा ॥३॥ यह विधि दिन दिन वृद्धि कराय. दोइज चंद्र बढ़त जिमि जाय । वस्त्राभरण पहप की माल, पहिरावत सुर मुदित विशाल ॥४॥ न्वहन करावं जल शुचि अंग, दिगकुमार देवी मत रंग | नाना क्रीड़ा कर जिन सोय, अति प्रानन्द रमा जोय || कर अम्बज ज पंसार दोय, प्रभहि खिलावै बहविधि सोय । बालचन्द्र पृथिवी के माहि, अति छविधर सवको हरषा हि ।।६।। माता दरस कर प्रहलाद, पिता अनन्द नमै द्वै पाद । दिनकर छिप देहकी कान्त, पान चन्द्र तर्ज धर शान्त ।।७।। अति संतोष पितृ परवार, सुधा सिन्ध पायौ सुत सार । शनैः शनैः पद धारै देव, मणिमय धरा सूर्य सम एव ।।८।। खेल देवन सहित जिनेश, तहां रतनमय घलि विशेष । सों निज सिर पर हार केलि, धूल देय मिथ्यामत बेलि ||६|| क्रम क्रम कहैं कमल मुख बैन, शारद इव सोहैं सुख देन । हंसि विकसै मुख कमल कुमार, सुन्दर देह लसै अधिकार ।।१०।। हर्ष करै क्रीड़ा बहु सोय, बांधव सजन सुक्ख अति होय । इहि विधि बालकुमार सूहात, माता आगे बच तुतलात ॥११॥ स्वेद रहित मलजित देह, दुध समान रुधिर है तेह। बनवषमनाराच संहान, सोहै सम सु चतुर संठान ॥१२॥ अति-सुगन्धि वपु दश दिशवास, उपमा रहित रूप है तास । लक्षण एक सहस अरु पाठ, अद्भुत बल प्रभु की निज ठाठ ॥१३॥ जगत पियारी बानी कहैं, वष उपदेश सदा निर्बहैं । एदश अतिशय सहज हि अंग, गुण अनंत धारक सरबंग ॥१४॥
दोहा एक सहस वसु अधिक जे, लदाण जिनवर देह । पृथक पृथक कछु वरनऊ, आगम अर्थ सनेह ॥१५॥
दश्य देख अभिषेक का हर्षित देव समाज । विविध भांति उत्सव करें सजि सजि अनुपम साज। जिनेन्द्र भगवान के महान उत्सव को देखने की इच्छा रखने वाले धार्मिक देव उस पर्वत राज को घेर कर बैठ गये। दिकपाल देव अपनी-अपनी मंडली को साथ लेकर अपनी दिशा की ओर बैठे। उस स्थान पर देवों ने एक ऐसे मण्डप का निर्माण किया था, जिसमें सभी देव' सुख पूर्वक बैठ सकें । मण्डप में यत्र-तत्र करा वृक्ष की मालायें लटक रही थीं। उन मालाओं पर बैठे हुए भौरे इस प्रकार गुज रहे थे, मानो वे प्रभु का गुण-गान ही कर रहे हों।
गन्धर्व देव और किन्नरियों ने जिनदेव के कल्याणक गुणों को बड़े ही सुमधुर स्वर में गाना प्रारंभ किया । दूसरी देवियो हाव-भाव पूर्वक नत्य करने लगी। देवों के तरह-तरह के बाजे बजने प्रारंभ हो गये। कुछ देव पूण्यादिको इच्छा से पुष्पों की वर्षा करने लगे। इसके पश्चात् इन्द्र ने अभिषेक करने के लिये प्रस्ताव कर कलशों की रचना की। कलश निर्माण मंत्र जानने वाले
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