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संधी प्रादि ६ देव कुमार, अंगुरिन पर गायों मनमारि । आपुन इन्द्र मध्य जिमि मेर, पांति मराल लसे चहुं फेर ।।१०।। छिनमें उर्व उचाले सबै, छिन में मंगरिन झेले सबै । छिनमें सकल अलोपित होइ, फिर छिन में देखें सब कोय ।।११।। ऐसी विधि बहु लिला करी, गूढ न काह परगट धरी । अत्र में रहे कर नट ख्याल, उपमा रहित महेन्द्र सुजाल ॥१११।। जय जय घोक कर अाकाश, देव और विद्याधर जास। इस विधि दिव्य नृत्य कर इन्द्र, विक्रिय उद्भव मन आनन्द ।।११२।। उत्सव हाव भाव कर सबै, पिता आदि पुरजन सुख जबै । जिनवर शुश्रुषा कर इन्द्र, मेवा राख धनद सुख वृन्द ॥११३।। धर्म महातम दीनौ भाव, तीन लोक जिय कीनै चाख । चतुर देव विद्याधर राज, निज निज लोक गये सब साज ॥११४।। सिद्धारथ नृप सब परिवार, जन्म महोत्सव कौतुक धार 1 देख्यौ पुत्र तनों फल पाय, पुण्य वृक्ष पूरब सुखदाय ||११५।। तहां सकल पुरजन के वन्द, करी बधाई मन आनन्द । घर घर वंदनवार बंधाय, रत्नजटित कंचन समुदाय ॥११६।। मंगन उनको दोनो दान, हय गय रतन पटेंबर पान । जन्म महोत्सव कर मन रंग, बहु वादिन बजे इक संग ||११७।। गावै गीत सकल पुर सार, सो बरनत लागै बहु वार । जन्मकल्याणक अति उत्साह, प्रभु को सेव करें प्रति चाह ।।११।।
गीतिका छन्द
यह सुकृत पुण्य विपाक फल, सब स्नान थी जिनवर भयो । इन्द्र शत पर देव चउविधि, खचर मिलि उत्सव व्यौ । मेर शीस स जायकै प्रभ, थापि सिंहासन धरै । क्षीरसागर जल जु भर फिर, कलश लै शिरपर ढरै ॥२१॥
मानन्द प्रदान करने के लिए बाल चन्द्रमा को भांति लोक को प्रकाश देने के लिए प्रकट हुए हो। हे ज्ञानी ! तुम विश्व के स्वामी इन्द्र धरणेंद्र चक्रवर्ती के भी स्वामी हो । धर्म तीर्थ के प्रवर्तक होने के कारण तुम्ही ब्रह्मा भी हो।
देव ! योगीराज तुम्हें ज्ञानरूपी सूर्य का उदयाचल मानते हैं । तुम भव्य पुरुषों के रक्षक और मोक्षरूपी स्त्री के पति हो। तम मिथ्या ज्ञानरूपी अन्ध-कप में पड़े हुए अनेक भव्य जीवों को धर्मरूपी हाथ का सहारा देकर उद्धार करने वाले हो । संसार के सभी विचारशील व्यक्ति तुम्हारी अलौकिक बाणी सुनकर अपने कर्मों को नष्ट कर परम पवित्र मोक्ष प्राप्त करंगे । और कोन्हीं भव्य जीवों को स्वर्ग की प्राप्ति होगी। प्राज अापके अभ्युदय से सन्त पुरुषों को बड़ी प्रसन्नता हुई । वस्तुतः प्रापही धर्म प्रवृत्ति के कारण हैं।
श्रतएव हे देव! हम तुम्हें नमस्कार करते है, तुम्हारी सेवा करते हैं, भक्ति प्रकट करते हैं और प्रसन्नता पूर्वक तुम्हारी प्राज्ञा का पालन करते हैं-दूसरे मिथ्यात्वी देव की नहीं। इस तरह वह देवों का पति सौधर्म का इन्द्र भगवान की स्तुति कर उन्हें गोद में उठाकर सुमेरु पर्वत पर चलने वो उद्यत हुचा। उसने और देवों को सुमेरु पर भी चलने के लिये प्राज्ञा दी। उस समय सभी देवों ने प्रभु की जय हो, पानन्द की वृद्धि हो, प्रादि ऊंचे शब्दों से जय जयकार की । उनकी ध्वनि समस्त दिशाओं में फैली।
इन्द्र के साथ-साथ और देव' भी जय-जय शब्द करते हुए प्रानन्द मनाने लगे। प्रसन्नता के मारे उनका शरीर रोमांचित हो गया। पाकाश में प्रभु के समक्ष अप्सराय नृत्य करने लगी, गन्धर्वदेव भी वीणा यादि वाद्यों के साथ गान करने लगे। देवों की दुन्दुभी की आवाज से सारा अाकाश मण्डल गुज उठा । किन्नरियाँ हर्पित हो अपने किन्नरों के साथ जिनदेव का गणगात करने लगी। उस समय सब देव भगवान का दर्शन कर अपने जीवन को सार्थक समझने लगे । वे बड़ी देर तक भगवान का दिव्य शरीर देखते रहे । इन्द्र की गोद में विराजमान भगवान को ऐशान के इन्द्र ने दिव्य छत्र लगाया। सनतकुमार और माहेन्द्र स्वर्ग के इन्द्र भी चमर इलाते हुए भगवान की सेवा करने लगे। जिनेन्द्र भगवान की ऐसी सम्पदा देखकर अनेक देवों ने उस समय सम्यक्त्व धारण किया। उन्होंने इन्द्र के बचनों का प्रमाण माना वे इन्द्र आदि ज्योति चक्र को लांघकर अपने शरीर के साथषणों की किरणों से आकाश को प्रकाशित करते हए जा रहे थे।
परस्पर संकडों उत्सव मनाते हुए वे देव बड़ी विभूति के साथ ऊंचे सुशेरु पर्वत पर जा पहुंचे। उस सुमेरू पर्वत की ऊंचाई एक हजार कम, साल योजन की है। पर्वत के प्रारम्भ में ही भद्रशाल बन है । उस वन में परकोट और ध्वजामों से सभी भित कल्याणकारक चार जैन मन्दिर सुशोभित हैं । उस वन में साढ़े बासठ हजार की ऊंचाई पर महा रमणीक सौमनस बनकर जहां पर सभी ऋतुओं में फल देने वाले एक सौ आठ वृक्ष हैं और जिन-चंत्यालयों की संख्या चार है।
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