________________
तोरण ध्वज अरु वंदनवार, गावें गीत नृत्य सुखकार । अति आनन्द कर नाटक रंभ, देवी सहित इन्द्र मन थम ||६|| प्रथम सुरेश कियौ समतार, नेत्र सुखी पर एक हजार। एक हजार भुजा जुन सोद, मणिमय भूपण भूपित जोइ ।।१७॥ पुनि बहुरूप नटनको ठयौ, जिन उद्भव कर भक्तहि लयौ। नत्य करें उजित सब लोक, कल्पवासिनी देवी थोक |||| सकल दिव्य पाभरण जु लहै, मानों दामिनि की युति गहै। नाना भांति कियौ तह रंग, भमरी लेत छिपै भू अंग ।।६।। कर पहप अंजलिकी वर्ष, बह आडम्बर जिनवर हर्ष । वीणा आदिक ध्वनि वाजंत, सुर समतार गीत अरु तंत ।।१०।। जिनवर के गुण धर गावंत, भव के अघ नाश करत । जो कछु रंग मेरु पै करौ, ताप यहां अधिक विस्तरौ ॥१०॥ नप अादिक सबको सुखकार, ऋद्धि विक्रिया कर अनुसार । अति विचित्र कटि पाय सुरेश, कंठ हस्त प्रादिक छनि देत ॥१०२।। धरन चरन चपल गति चले, लित कंप गिरिवर सब हलं । भ्रमैं मुकुट चक फेरी लेत, वलयाकृति कुडल छवि देत ।।१०३।। भज कंकण मणि शोभा हेत, मनों नखत गिरि फरी देत । सहस पाय नपुर के सोर, सब बाजित्र बजं वह अोर ॥१४॥ विहल कर भ्रम भ्रम सोय,छिन मैं एक छिनक बहु जोय। छिन में उन्नत द्वीप प्रमान, छिन में सूक्षम वपु कर गान ।।१०।। छिन में निकट धरै बहु भेक, छिन में दूर जाय कर टेक । छिन में भूमि छिनहि नभ सार, छिन में दोहर छिनक हजार ।।१०।। इहि विधि हर्ष बढ़ायौ इंद्र, इन्द्रजाल सम अप्यौं वृन्द । पुनि अप्छर लै रंग बिहार, भुज प्रति नाट नटावहि सार ॥१०७।। नई छिनक छिन लघता धर, सुर अंगत प्रवेश बहु करै । लीला और करी इक तबै, हस्त अंगुलिन ऊपर सवै ।।१०८।।
मोधर्म स्वर्ग के इंद्र, भगवान के जन्म का समाचार पाकर उनका जन्म कल्याणक मनाने का विचार करने लगा। उसी
की प्राज्ञा से देवों की सेनाएँ जय जयकार करती हुई स्वर्ग से उठी । उनकी विशाल सेनाय समुद्र से उठती हई प्रचण्ड लहरों के समान प्रतीत होती थीं। हाथी, घोड़, रथ, गन्धर्व, मतको पैदल बैल आदि से युक्त सात प्रकार की देवों की सेनायें निकली। पश्चात सीधर्म स्वर्ग का पति इन्द्र इन्द्राणी के सहित ऐरावत हाथी पर सवार होकर चला । उसके चारों ओर देवों की सेनायें घिरी हुई थीं।
इन्द्र के पीछे पीछे बड़ी विभुतियों के साथ सामानिक प्रादि देव चल रहे थे। उस समय दुन्दुभी प्रादिबाजों की ध्वनि और देवों की जत जयकार से सारा अाकाश गजने लगा। रास्ते में कितने ही देव गाते हुए चल रहे थे। कोई नत्य करता जाता
और कोई प्रसन्नता के मारे दीड लगा रहा था। उनके छत्र चमर और ध्वजाओं से सारा आकाश मण्डल पासछादितही गया था। वे चारों निकाय के देव बड़ी विभूतियों के साथ कम-मरो कुण्डलपुर पहुंचे। उस समय ऊपर बीच का भाग देव देवियों से घिर गया था। राज महल का प्रांगन इन्द्रादिक देवों से बिल्कुल भर गया था।
इन्द्राणी ने तत्काल प्रसूती गृह में जाकर दिव्य शरीरधारी कुमार और जिन माता का दर्शन किया। बेबार बार उन्हें प्रणाम कर जिन माता के आगे खड़ी होकर उनके गुणों की प्रशंसा करने लगीं। इन्द्राणी ने कहा-देवी! तमनोनीत के स्वामी को उत्पन्न करने के कारण समग्र विश्व की मामा हो। और तुम्हीं महादेवी भी हो। महान देख सनरी अपना नाम सार्थक कर लिया । संसार में तुम्हारी तुलना को अब कोई स्त्री नहीं है।
इस प्रकार माता की स्तुति कर इन्द्राणी ने उन्हें निद्रित कर दिया । जब जिनमाता सो गयी तो इंद्राणी ने उनके सारे एक माया का बालक बनाकर सूला दिया पीर स्वयं अपने हाथों से जिन भगवान को उठाकर उनके शरीर का स्पर्श किया। बार बार उनके मंह का बम्बन करने लगी। भगवान के शरीर से निकलती हुई उज्जवल ज्योति को देखकर उनके द्वर्ग का ठिकाना न रहा। पश्चात वह उस बाल्य भगवान को लेकर आकाश मार्ग की ओर चली। वे भगवान अाकाश में ठीक सर्य की तरह जान पडते थे। समस्त दिक कूमारियाँ छत्र, ध्वजा, कला, चमर, स्वस्तिक ग्रादि पाट मांगलिक पदार्थों को लेकर इन्द्राणी के प्रागे-मागे चलीं।
उस समय इन्द्राणी ने जगत को आनन्द प्रदान करने वाले जिनदेव को लाकर बड़ी प्रसन्नता से इन्द्र को दिया। भगवान की पूर्व सन्दरता उनकी तेजोमय दीप्ति देखकर देवों का स्वामो इन्द्र उनकी स्तुति करने लगा-हे देव! तुम हमें परम