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चौपाई सकल विभूति लही जिन साथ, जय जय करें नाथ निज माथ । आय गगन रुंध्यौ ग्राकाश, सप्त अनोका सुर तिय तास ।। सेव काज करवं कों इन्द, पुर में गये सहित निज वन्द । चतुर निकाय देव बहु संग, नप प्रागार कर बह रंग ।।४|| माणिमय सिंहासन पर तहां, थाप जिन कुमार को जहां। दिव्य कांति को वरननहार, गुण अनंत केवल सुखधार ॥५॥ जननी तहं सोवत सुख भरी शत्री जगाय गोद जिन धरी। हरषवन्त सुत देखत जोय, भूषण भूषित घ ति बहु सोय ।।६।। इन्द्राणी तब अस्तुति करी, जीवन सफल धन्य तुम धरी । तीन लोक पति जन्म महान, तुम सम त्रिय जग में नहिं पान ॥७॥ नैन सफल तुम देखत भए, तुम देखत सब विकलप गए। तुम उपमा अब दीजै काहि, तीन लोक तुम सम कछु नाहि ।।१।। श्री सिद्धारथ बन्धु समेव, हर्ष सहित दरसे जिनदेव । प्रथम इन्द्र अब अरु ईशान, नृप थुति कर सिंहासन थान ॥८॥ दम्पति की पूजा हरि करी, मणिमय प्राभूषण अंग धरी । पाटवर बहु बस्त्र अनेक, पहुपमाल पहिराई एक ।।६०॥ फिर अस्तुति कर कर शिर नये, आज धन्य तुम दरशन भये । जिन बिन मात पिता धन तोय, तुम सम उत्तम और न कोय ॥११॥ लोक विषं गुरु हो जगदिष्ट, मात पिता में बड़े सरिष्ठ । तीन लोक में पुरुष न और, तुम समान दम्पति शिरमौर ॥६२।। क कियौ गिरि शीस, सो सव वर्ण कहो सुर ईश । तब बहु हर्ष भयो नप रानि, अति आनन्द महोच्छव ठानि ॥३||
जिनवर गेह, पूजा करी अष्टविध नेह । प्रभु जुत मात पिता पद नये, नाना भांति हर्ष जुत ठये ॥६४|| अद्भुत लीला हरि बहु करी, देखें नरनारी पुर जुरो । स्वजन प्रादि सब पुरजन तेह, प्राये सुतहि महोच्छव लेह ॥६५॥
(प्रश्न) इस संसार में शूर वीर कौन है ? (उत्तार, जो धैर्यरूपी तलवार से परिषह रूपो महा योद्धाओं को, कषाय रूपी शत्रुओं को तथा काम मोह प्रादि शत्रुओं को जीतने वाले हों। (प्रश्न) देव कौन है ? (उत्तर) जो सबका जानने वाला क्षुधादि अठारह दोषों से रहित शनन्त गुणों का सपना का वर्तक हो ऐसे अहंत प्रभ ही देव हैं। (प्रश्न) महान गुरु कौन है ? (उत्तर) जो इस संसार में वाह्य अभ्यन्तर दोनों प्रकार के परिग्रहों से रहित हो । जगत के भव्य जीवों के हित साधन में उद्यमी हो और स्वयं भी मोक्ष का इच्छित हो वही महान गुरु है । दूसरा मिथ्यामती धर्म-गुरु नहीं हो सकता।
__इस प्रकार देवियों द्वारा किये प्रश्नों का उत्तर जिन-माता ने गर्भ के प्रभाव से दिया। प्रथम तो उस महारानी की बद्धि स्वभाव से ही निर्मल थी। पूनः अपने उदर में तीन ज्ञान के धारक प्रकाशमान तीर्थकर देव को धारण करने से वे और भी स्वच्छ हो गयी थी। रानी के उदर में विराजमान पुन को बिल्कुल दुःख नहीं मिला, कारण, क्या सीप में रहने वालो जल विन्द में कभी विकार हो सकता है, कभी नहीं। उस देवी की त्रिबली भी भङ्ग नहीं हुई । उदर पूर्व जैसा रहा, पर गर्भ को वृद्धि होती गयी। यह सब प्रभु का ही प्रभाव था।
गर्भ में स्थित प्रभ के प्रभाव से महारानी की मुखाकृति बड़ो ही शोभायमान हो गयी। उन्हें देख कर प्रतीत होता था किबे असंख्य रत्नों को धारण करने वाली पृथ्वी हो हो । अप्सरामों के साथ इन्द्र के द्वारा भेजो हई इन्द्राणो हो जिनको सेवा कर रही हो. उनकी कान्ति और उनके मुख का वर्णन नहीं किया जा सकता है । इस प्रकार लगातार नौ महीने तक महान उत्सव सम्पन्न होते रहे। देखते-देखते नवा महीना पूर्ण हो गया। शुभ चैत्र मास की त्रयोदशी के दिन यमणि नाम योग में, शुभ लग्न में त्रिसला महादेवी ने अलौकिक पुत्र को जन्म दिया। वह पुत्र अपने उज्जवल शरीर की कान्ति से अन्धकार को विनष्ट करने वाला, जगत का हित करने वाला मति ध्रुति अवधि-तोनों ज्ञान को धारण करने वाला, देदीप्यमान और धर्मतीर्थ का प्रवर्तक तीर्थकर हुआ।
उनके जन्म के साथ-साथ सभी दिशाय मिमल हो गयों । प्राकाश में निर्मल वायु बहने लगी। स्वर्ग से कल्पवक्षों के पष्पों की वर्षा हुई और चारों जातियों के देवों के आसन कम्पायमान हो गये । स्वर्ग में बिना बजाय ही बाजों की बान होने गोमानों वे भी भगगवान का जन्म उत्सव मना रहे हो। इसके अतिरिक्त अन्य तानों जातियां के देवा के महलों में शस्त्र-भेरी आदि के शब्द होने लगे।
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