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यह प्रकार गंधोदक बंद, शांतरूप सब देव प्रानन्द । फिर पूजा कीनी सुरराय, अष्टद्रव्य ले हरप बढ़ाय ।।५७।। जले सुगन्ध' अक्षत बहु शुद्ध, कल्पद्रुम के पुष्प समृद्ध । ल नैवेद्य धरौं पकवान, दीप मणि मई धूप महान ।।५८।। कल्पतरुवर फल ले सार, अर्ध्य धरी कुसुमांजलि डार । सबै सुरासुर पुहुप जू वृष्ट, पंचाचार करें मन तुष्ट ११५६।। यह प्रकार प्रभु जन्मभिषेक, इन्द्र और सुर असुर अनेक । कियौ महा मानदित जाम, तीन प्रदक्षिण देता ठाम ।।६०॥ अंग अंगोछ लियो सरराय, फिर सिंहासन पे बैठाय । इन्द्राणी प्रादिक सब देव, कौतुक कर अग्र जिन सेव ॥६१।। सब प्राभरण धरं तहं प्रान, है नियोग तीर्थकर जान । तिलक दये चन्दन के सार, तीन जगत पति को हितकार ॥६२।। अजन नैनन दियो सुदार, शीस मुकुट चुडामणि धार । वज्रमयो प्रभु चरम शरीर, विधे कणं गरमहि के वीर ॥६३।। इन्द्राणी कुण्डल पहिराय, रत्नजडित श्रुति दामिन जाय । कण्ठ माहि पहिराये हार, मणिमय मोह तिमिर हरतार 11६४।। जुगल बाहु जुग पौंचीब बनी, नाना रतन जड़ित सुख सनी । अंगुरिन मुदरी दीप्ति अनेक, किकिण डिक पहाई एक ॥६५।। जगपद मणिमय सांकर दोय, ताकी उपमा प्रति छवि होय । इतने साधारण प्राभरण, मण्डित महादीस अति करण ॥६६॥ भगवन रूप देख सुरराय, प्रानन्दौ मन अङ्ग न माय । सहस नेत्र करि तृप्ति न होय, पलसों पल न लगाव सोय ।।६७।। अति प्रमोद उमग्यौ जु शरीर, रोमांचित ज्यों सागर नीर । तुम तीर्थकर तीरथ राज, अघनाशन भव जीव काज ।।६।। प्रभु अस्नान करें कह देवा, तुम पवित्र सहजै स्वयमेव । भक्ति हेत पै हम कछु कयौँ, पुण्य लहौ पूरब अघ टयौं ।।६६।। तीन जगत मण्डित तुम भक्त, में अपने वशकर कछु सक्त। तीन लोक जिय आये साज, प्रभु कल्याणक देखत काज ॥७०॥
जगत के कल्याण के लिये अपने गर्भ में तीर्थकर को धारण करने वाली हे माता! धर्मतीर्थ स्थापित करने वाले की उत्पत्ति में देव, विद्याधर, भुमिगोचरी जीवों का तीर्थस्थान बन । (इसमें अट क्रिया गुप्त है) हे देवी महारानी ! इस लोक और परलोक में कल्याण करने वाला कौन है । (माता का उत्तर)मो धर्म-तीर्थ का प्रवर्तक है, वे ही थी अर्हतदेव तीन जगत के कल्याण करने वाले हैं। (प्रश्न देवियों का) गुरुपों में सबसे महान कौन है? (उत्तर) जो तीन जगत का गुरु और सब प्रतिशयों से तथा दिव्य अनन्त मुणों से विराजमान ऐसे श्री जिनेन्द्र देव ही महान गुरु हैं।
(प्रश्न) इस जगत में किसके वचन श्रेष्ठ और प्रमाणिक हैं ? (उत्तर) जो सबका जानने वाला, दुनियां का हित करने वाला, अठारह दोप रहित और वीतरागी है ऐसे श्री अर्हत भगवान के वचन ही श्रेष्ठ और मानने योग्य हैं। इसके सिवा दूसरे मिथ्या मतियों के नहीं। (प्रश्न) जन्म-मरण रुपी विष को दूर करने वाला अमृत के समान क्या पीना चाहिये? (उत्तर) जिनेन्द्र के मुख कमल से निकला हुमा ज्ञानामृत पीना चाहिये-दूसरे मिथ्या ज्ञानियों के विष रूप वचन नहीं पीने चाहिये। (प्रश्न) इस लोक में बुद्धिमानों को किसका ध्यान करना चाहिये ? (उत्तर) पंच परमेष्ठीका, प्रात्म-तत्व का धर्म-शुक्ल रूप ध्यान करना चाहिये, दूसरा आर्त रौद्र रूप खोटा ध्यान कभी नहीं करना ।
(प्रश्न) शीघ्र कौन-सा काम करना चाहिये । (उत्तर) जिससे संसार के भोगों का नाश हो, ऐसे अनन्त ज्ञान चारित्र का पालन करना चाहिये, मिथ्यात्वादि को नहीं। (प्रश्न) इस संसार में सज्जनों के साथ में जाने वाला कौन है ? (उत्तर) दयामय धर्म हो सहायता करने वाला बन्धु है, जो सब दुःखों से रक्षा करने वाला है। इसके अतिरिक्त और कोई सहगामी नहीं है। (प्रश्न) धर्म के कौन-कौन लक्षण व कार्य हैं ? (उत्तर) बारह तप, रत्नत्रय, महाबत शील और उत्तम क्षमा आदि दश लक्षण ये सब धर्म के कार्य और चिन्ह हैं ?
(प्रश्न) धर्म का इस लोक में फल क्या है ? (उत्तर) जो तीन लोक के स्वामियों की इंद्र धरणेन्द्र चक्रवर्ती पद रूप संपदायें, श्री जिनेन्द्र का अनन्त सुख, ये सब धर्म के ही उत्तम फल हैं। (प्रश्न) धर्मात्माओं के चिन्ह क्या हैं ? (उत्तर) शान्त स्वभावः अभिमान का न होना और रात दिन शुद्ध आचरणों का पालन ये ही धर्मात्मानों की पहचान हैं। (प्रश्न) पाप के चिन्ह क्या क्या हैं ? (उत्तर) मिथ्यात्वादि क्रोधादि कषाय, खोटी संगति और छहांतरह के अनायतन ये पाप के चिन्ह हैं।
(प्रश्न) पाप का फल क्या है ? (उत्तर) जो अपने को अप्रिय, दुःख का कारण है, दुर्गति करने वाला और रोग क्लेशादि देने वाला है ये सभी निन्दनीय कार्य पाप के फल हैं। (प्रश्न) पापी जीवों की पहचान क्या है ? (उत्तर) बहुत क्रोध आदि कषायों
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