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परम पुरुष को जग में मित्त? जो धर्मी है सहजै चित्त । तप पर ध्यान क्तादिक धरै, दुराचार को नहि संचरै ॥२१५|| को है शत्र जगत विख्यात ? तप सुहानि दीक्षा न गहात । हित अनहित दोक परिछेद, धरै कुबुद्धि स्वपर बहु खेद ॥२१६।। को दानी है जग शिरमौर? क्षेत्र उलघि घरै नहि ठौर । तप कर दुर्वल अंग करेय, ते अमोल गुनको जु घरेय ॥२१७॥ तुम सम तिय जग में अब कोय? तीर्थकर सुत जाके होय । तीन भुवन में तारक जोय, दुर्मत को स्वयकारक सोय ॥२१८।। पण्डित कौन जगत में माय? श्रत को जाननहार सूभाय । दुराचार नहि बांध यंग, पाप क्रियातें रहित प्रसंग ॥२१९।। मुरख को कहिये जग माहि? त अरु क्रिया चार गत नाहि । तप र धर्म घर ना लेश, पाप बुद्धि लहि कुगति प्रवेश ||२२०॥ दुर्घर चोर जगत में वीन? धर्म रतन के हुर्ता जौन । इन्द्रिय पंच दई मुकराय, हित त्यागे अनहित जु सुहाय ॥२२१।। शुरवीर को जग में होय? सहै परीषह भट हो सोय । धीरज-असि कपाय-अरिनाश, मोहादिक तज दोनों वास ।।२२२॥ को है अखिल देवता देव ? दोष अठारह कीनी ठेव । गुण अनन्त जग में विख्यात, पर उपकार धर्म शिक्षाद ।।२२३।। उत्तम गुरु या जग में कोय, दुविध परिग्रह वर्जित होय । भव्यनि प्रति उपदेशहि सार, भवधि पार उतारन हार ॥२२४|| यह प्रकार बहु प्रश्नहि करी, दिक्कुमारिका मन गह भरी । अतिशय गर्भमाहिं प्रभु जान, माता उत्तर दियो महान ।।२२५|| उदर माहि अन्तिम जिनराय, तीन ज्ञान धार निज काय । जैसे छीप मध्य मणिवास, तसे उदर मध्य जिन तास ।।२२६॥ त्रिवली भंगुर नासी नाहि, माता कछू न संकट पाहि । अधिक दीप्ति बाढ़ी जु शरीर, गर्भ-रतन की ज्योति गहोर ॥२२७॥ इहि विधि देवी कर उत्साह, मन रज नित नित अति ताह । नवम माम पूरन जब भयो, मन ग्रानन्द नृपतिने ठयौ ।।२२८।।
दोहा देवी बहु प्रश्न हि करी, माता दीनी ज्वाप । श्रुतसागर की केलि में, मनह सरस्वती पाप ॥२२६।। तब सुर पंचाश्चयं कर, रतन पहुप बहु वर्ष । गन्धोदक दुन्दुभि मधुर, जय जय बोलत हर्ष ।।२३०।।
गीतिका छन्द यहि भांति चरण सुधर्म करवी, भोग भगते शक्रने । पून चय तहांत गर्भ आये, वीर जिन अन्तिम गने ।। धर्म तें जिन पित्र मातहि, इन्द्र शत सेवत भये । श्रुति करी मन अरु वचन तनधर, पाप निज लोकहि गये ।।२३१॥
ज्योतिपी देवों के यहां स्वयं सिंहनाद होने लगा। भवनवासी देवों के यहां शंख की महान ध्वनि हुई। साथ ही व्यन्तर देवों के महलों में भेरी की विकट आवाज हुई। केवल यही नहीं और भी पाश्चर्य जनक घटनायें घटी। उक्त आश्चर्य जनक घटनामों को घटते देखकर चारों जाति के देवों को यह ज्ञात हो गया कि, महावीर प्रभु का गर्भावतरण हो गया। पश्चात् वे स्वर्गपति भगवान का गर्भ-कल्याणक उत्सव मनाने के उद्देश्य से उस नगर में पधारे। उस समय देवों के समूह को देखते ही बनता था। वे सर्वोत्तम सम्पदायों मे मुशोभित थे, अपनी-अपनी सवारियों पर पारुढ थे, उत्तम धर्म का पालन करने वाले दरम। अपने अंग के प्राभूषणों और तेजसे दशों दिशाओं को प्रकाशित करने वाले थे। उन्होंने ध्वजा, छत्र विमानादिकों से आकाश को ढंक दिया। वे देव अपनी देवियों के साथ जय-जय शब्द कर रहे थे।
उस समय नगर की अवस्था देखने लायक हो गयी । विमानों, अप्सराओं और देवों की सेनाओं से घिरा हुआ वह नगर स्वर्ग जैसा सर्वोत्तम प्रतीत होने लगा। देवों के साथ इन्द्र ने भगवान के माता-पिता को सिंहासन पर बिठा कर सोने के घड़ों से स्नान कराया तथा उन्हें दिध्य ग्राभूषण तथा वरत्र पहनाये । माता के गर्भ के भीतर स्थित भगवान को सबों ने तीन प्रदक्षिण दे नमस्कार किया।
इस प्रकार सौधर्म इन्द्र भगवान का गर्भ कल्याणक सम्पन्न कर जिन माता की सेवा में देवियों को रख देवों के साथ पुण्य उपार्जन करता हुआ, बड़ी प्रसन्नता के साथ पुनः स्वर्ग को लौटा।