________________
कोई गावे गीत सुरंग, कोई नृत्य करें मन रंग। इहि विधि चतुर निकायी देव, प्रथम इन्द्र सब में बहु सेव ।।१५।। विमान हाय संध्यो आकाश, छत्र ध्वजा दीसें परकाश । अति फहराव होय चहुं ओर, प्राये कुण्डलपुरहिं बहोर ॥१६॥ दै प्रदक्षिणा परहि सुरेश, कीनो पूरब पौर प्रवेश । सवाल नगर में भीर जु भई, नर सुर असुर सेव मिल गई ॥१७॥ नृप अंगन प्राये सब इन्द्र. संग लिये इन्द्राणी वृन्द । तब हि शची जिन मन्दिर गई, जननी सहित प्रदक्षिण दई ॥१८॥ दिव्य देह तब देख कुमार, नमस्कार कर बारम्बार । भो प्रभु ! तीन जगत गुरदेव, पुण्य प्रताप मिले तब सेव ॥१६॥ धन दिग देवी सेवा करी, धनमाता तिहि जनमत घरी । सार्थ नाम अब प्रियकारिणी, विश्वलोकपति दरशावनी ॥२०॥ इहि प्रकार प्रस्तुति कर गढ़, जनम गीत गाये मन रूढ़ । कर माया सुख निद्रा पाय, मायामय बालक यह ठाय ॥२१॥ लीनौं निज कर प्रभु हि उठाय, शची र निज अंग नमाया। तन दोपति व्यापी दिश सर्व, को कवि बरनै श्रुत धर गर्व ॥२२॥ भान दिखाये प्रभको तब, इन्द्र प्रदक्षिण दै शिर नवं । रूप देख जिन भये न तुष्ट, सहस नयन कीने हरिसुप्ट ॥२३॥ इन्द्राणी दीनै शिरनाय, हरवंत लीने सुरराय । लक्षण अष्टोत्तरशत गात, पर व्यंजन नवसे विख्यात ॥२४॥ दरस अंग अंग की कान्त, पुरब उदय भान लाजत । नख देखत उगन द्युति घोर, हरि प्रस्तुति कीनी करजोर ||२५|| गूरुन विष गुरु हो तुम ईश, चित्त धर्म के तीरथ ईश। तुम प्रभु अन्तिम जिनवर सुर, केवल ज्ञान उदय अघ चूर ॥२६॥ भव्य जीव रक्षक हित धर्म, मुक्ति स्त्री भर्ता शुभ शर्म । मिथ्याज्ञान कप है अन्ध, परै ताहि में पानी धंध ||२७|| धर्म हस्त तुम परम जहाज, उद्धारत भवि जीवन काज। मोह आदि जे कर्म न हने, ते शिवपुर को जेहैं घने ॥२८॥ प्रस्तुति बहुत शक तह करै, नमस्कार कर गज संचरै। जन्मभिषेक करन को जोय, गगन पयान कियो पुन सोय ।।२।। दुन्दुभि सकल बज बहु ध्यान, किंनर गावे गीत सुहान। नत्यत देवी लीला करें, जिनके गुण रट रट निज गरें॥३०॥ प्रथम इन्द्र निज कांधे थाप, अरु ईशान छत्र लिय प्राप । सनत्कुमार महेन्द्र जु होय, चौर दुरै अति हर्षित होय ॥३१॥ सकल देव जयघोष कराय, यह विधि बहुत भयो कहराव । ज्योतिष लोक उलंधै जाय, क्रम श्रम मेह ऊर्ध्व पहुंचाय॥३२॥ पाण्डुक बन तह शोभावान, कल्पद्र म दीसे सब थान ! चहूंदिश चार जिनालय धार, विदिशा पाण्डक शिला सुचार ॥३३॥ (ई) शान दिशा की शिला नियोग, भरतक्षेत्र तीर्थकर जोग1 सौ जोजन है दीरघ सोय, अर पचास विस्तार जु होय ॥३४॥ जोजन पाठ ऊंचाई धार, अष्टम चन्द्र तास प्राकार । सिंहपीठ तिहि मध्य जु लीन, वैडूरज मणि सोहत तीन ।।३।। पाव कोश पहिली उन्मान, आधी तास दूसरी जान । तात अर्घ ऊर्ध्वमुख और, मण्डप इन्द्र रच्यो शिरमौर ॥३६॥
की मङ्ग-रक्षाके लिये नंगी तलवारों से पहरा देती थीं और उनके लिये भोग्य सामग्रियों को एकत्रित करती थीं । कुछ देवियां पुष्प धूलि से भरे हुए राज्य-आँगन में बुहारी लगाती थीं और कुछ चन्दन जल का छिड़काव करती थीं।
उन देवियों ने रत्नों के चरण से स्वस्तिक प्रादि की रचना की और महल को कल्पवृक्ष के पुष्पों से सजाया। किसी ने ऊंचे महलों को चोटियों पर रत्नों के दीपक जलाये, जो अन्धकार को नष्ट करने वाले थे । कपड़े पहनाना, प्रासन बिछामा प्रादि समस्त कार्य देवियां किया करती थीं । माता की वन-क्रीड़ा के समय मिष्ट गील, प्रिय नृत्य और धामिक कथायें कह-कह कर वे माता को सुख पहुंचाया करती थीं। इस प्रकार जिन-माता देवियों द्वारा सेवित हुई और उन्होंने एक अनुपम शोभा धारण की।
जब नौवें मास का समय निकट आया तो गर्भवती माता अतिशय बुद्धिमती हुई। उन्हें प्रसन्न रखने के उद्देश्य से देवियां तरह-तरह की प्रहेलिकायें और मनोहर कवितायें सुनाया करती थीं। वे देवियां कुछ मूढ़ अर्थ की प्रहेलिकायें माता से पुछा करती थीं और माता उसका समुचित उत्तर दिया करती थीं। उदाहरण के रूप में निम्न पहेली और उसका उत्तर साथ है
विरक्ता नित्य कामिन्या कामुको कामुको महान् । सस्पृहो निःस्पृहो लोके परात्मान्यश्च यः स कः ॥१॥ अर्थात् जो वैरागी होने पर भी सर्वदा कामिनी की इच्छा रखता है और निस्पृही होने पर भी इच्छा करता है, इस
३६६