________________
प्यों रखनीश कला बह रज, भानरोह में प्रभता लज । जिन दच किरण प्रकट जब भयो, तम विकल्प सब मन को गयो ।।१५१३॥ शुभ मारग शुभ वचन सध्यान, शुभ पदार्थ करणा जिन भान! धर्म कमल विकसाधनहार, पाप कुमुदिनी सकृचनहार।।१५।। यहि अन्तर जिन माता जान, उठी प्रातमुख सिन्धु समान। धर्म ध्यान साधौ बहु भेद, समायिक दीनो तज खेद ॥१५३॥ मज्जन न्हवन कियो तरकाल, आभूषण पहिरे सु विशाल । संखिम सहित फिर पहुंची तहाँ, सभामध्य नृप बैठ्यो जहां ।।१५४।।
रानी द्वारा राजा से स्वत्नों का फल पूछना और राजा द्वारा
स्वप्नों का फल बतलाना नप प्रादत देखी बर मार, मधुर वचन बोले हितकार । अति प्रस्नेह बुलाई तास, दियौ अर्ध सिंहासन पास ।।१५।। हर्षवंत बोली करजोर, मो बल सुन स्वामी मुख मोर । ग्राज रंनके पीछे जाम, देखें षोडश स्वप्न सु धाम ॥१५६॥ हस्ती आदि अगिनि पर्यन्त, यह प्राश्चर्य भयो मो कत । जुदे जुदे फल कहिये तास, जाते मन को संशय नाश ॥१५७।। तीन ज्ञान वर मनहि विचार, तब नृप बोत्यो सुर वर नार ! एक चित्त है फल सुन येह, मैं भापत हों सब सुख एह ॥१५८।।
पद्धरि छन्द प्रथमहि गज सपनो फल मु एह, तीर्थ कर सुत तुम उर बसे ह । है वृषभ तनी फल सुवख खान, जग ज्येष्ठ धर्म रथ धुर प्रधान ।। १५६।। जब सिंह सुपन खय करत कर्म, हूं है अमात वीरज सुशर्म । लक्ष्मी भिषक फल मे शीस, अस्थापन कर है अमर ईश ।।१६०।। अरु पहुप दाम फल सुनहु तेह, अति हू है सहज सुगन्ध देह । शशि पूरन देख्यो तुम विशाल सो धर्म सुधा वाणी रसाल ॥१६१।। रवि सुपनतनों फल इहि प्रकार, अज्ञान महातम हरनहार । जुग कुभ तनों फल है विशाल, सो ज्ञान ध्यान अमृत रसाल ||१६२।। जुग मीन सुपन फल इहि प्रमान, संपूरन सुखकर्ता महान । सर कमल सहित फल सुनहु जोग, लक्षण व्यंजन जुत तन मनोग ।।१६३॥ हे सिन्धु सुपन को फल महत, सुन के बल ज्ञान प्रकाशवंत । सिंहासन फल इमि कहत राय, अय जमत रमा सेवे सुपाय ॥१६४|| अव मुर विमान फल सुक्खदाय, सुरलोक छोड़ तुम गर्भाय । नागेन्द्र भवन फल होइ जास, सो भतिश्रुत अवधि विज्ञान भास ।।१६५।। तुम रत्नराशि देखी विशाल, फल दर्शन ज्ञान चरित्र माल । अव भगिन शिखा फल सुनहु एह, वसु कर्मजार शिवपर वसे ह ।।१६६॥
___ दोहा गज प्रवेश मुख में कियो, सो फल अब सुन नार। अन्तिम जिन तुम गर्भ में, लियो आय अवतार ।।१६७।। अंग अंग हरषित भई, सुनं स्वप्नफल सार । शीस नाय नप को मुदित, मन्दिर गई सवार ॥१६॥
देवियों के द्वारा जिनमाता को सेवा का वर्णन ।
चौपाई सबै प्रथम सौधर्म सरेश, घट देविन को दिय प्रादेश । पदम आदि द्रह वासिनी सोय, आई कूडलपुर अबलोय ॥१६६।। जिन माता के लागी पाय, तुम से पठई सरराय । गर्भ शोधना कीनी प्राय, प्राज्ञा धरै सब हि मन लाय ||१७०।।
महाराज से निवेदन किया-देव! आज रात्रि के तीसरे पहर में मैंने अत्यन्त प्राश्चर्यजनक स्वप्न देखे हैं । अतः हाथी इत्यादि सोलह स्वप्नों का अलग फल मुझे सुनाइये।
महारानी के मुख से ऐसी बातें सुनकर मति प्रादि तीनों ज्ञान के धारक महाराज सिद्धार्थ ने कहा-सुन्दरी ! मैं इन स्वप्नों के शुभ फलों का शीघ्र ही वर्णन करूगा । तुम सावधान होकर श्रवण करो । महाराज ने कहना प्रारम्भ किया-कान्ते ! हाथी देखने का यह फल हुआ कि तेरा पुत्र तीर्थकर होगा और बैल देखने से फल यह हृया कि यह धर्मचक्र का संचालक होगा। सिंह दर्शन से वह पुत्र कर्मरूपी हाथियों को विनष्ट करने वाला, अनन्त बलवान होगा और लक्ष्मीका अभिषेक देखने का फल, यह बालक सुमेरु पर्वत पर इन्द्रादिक देवों द्वारा स्नान कराया जायगा।
३६३ :