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छठवाँ अधिकार
मंगलाचरण
दोहा मोह अक्ष-सकर हन्यौ, भविजन रक्षक देव । ज्ञान धर्म करता अरथ, करो वीर जिन सेव ॥१॥
चौपाई याही जम्बूद्वीप बिख्यात, भरतक्षेत्र तामें अवदात | छत्राकार नत्र तह जान, निबसें धर्मीजन सुख खान ॥२॥ नन्दवर्ध भूपति अबनीश, यानन्दवर्धक गुणगण शीस । रानी वीरमती अतिरूप, पुण्यशालिनी शील अनूप ।।३।। चयो सरगस देव पुनीत, तिनके पुत्र भयो कर प्रीत । नन्द' नाम अति रूप विशाल, जग मानन्द करण सुकुमाल ।।४।। बन्दोजन हि दियौ बहु दान, पुत्र महोवछब कियो महान । योग्य अन्न पय पोप कराय, बाढ़ गुण संपूरन काय ।।५।। उपाध्याय के पठ्यो तबै, धरता शास्त्र-शस्त्र को जब। कला विवेक रूप अति धनी, सोहै स्वर्ग देव यह फनौ ॥६॥ क्रम सौ वर पितापद पाय, राज्यविभूति रमा अधिकाय । दिव्य-भोग भगत संसार, सदा धर्म को करहि विचार ॥७॥ निशंकादिक गण पालत, दर्शन युद्ध धरै मन संत । द्वादश धन श्रावक से जान, करै जतन सो ते परवान || निरारम्भ उपवास पुनीत, सकल परव' में कर सुरीत । दान मनि को हर्ष बढ़ाय, देय यथात सुक्ख अधिकाय ||
किये बिनष्ट विवेक से, मोह-शत्रु अपकर्म । करें सिद्ध शुभ कार्य वे, वीर प्रवर्तक धर्म ।। इसी जादद्वीप के भरत क्षेत्र में एक अत्यन्त रमणीक नगर है। उस धर्म की खानि नगर का नाम छत्राकार है । उस समय र का राजा नन्दिवर्द्धन था । बीरवती नामकी उसकी सुशीला रानी थी । वह देव स्वर्ग से चलकर उन दोनों का नन्द नाम था। उसके सौंदर्य और गुणों से सारे नगर को प्रसन्नता हुई। उसका जन्मोत्सव बड़े प्रानन्द से मनाया गण । वह बालक
की भांति बढने लगा। क्रमले उसने शास्त्र विद्या और शस्त्र-विद्याओं का अध्ययन किया। उसकी प्रतिभा यहां तक बढी कि देवोंके सदश जान पड़ने जगा । अनन्तर जबानी की अवस्था में अपने पिता द्वारा राज्य-पद पाकर विभिन्न प्रकारके मोगों क भोग करने लगा। उसने निःशंकादि गुणों के साथ निर्मल सम्यकत्व को धारण किया। थाबकों के बारह व्रतों का अच्छी - - - - - - - -. -..
- -- - -- इन्द्र पद , मनय जन्म के तप का प्रभाव म्वर्ग में भी रहा, धर्म प्राप्ति के लिए मैं रत्नमयी जिन प्रतिमायों के दर्शनों को जाना था, उनकी भक्ति तक ग्रनमोल रनों से पूजा करता था . नन्दीश्वर द्वीप में भी जाकर अकुत्रिम चैत्वालयों की पूजा किया करता था। तीर्थकों तथा मुनिवरों की भक्ति में ग्रानन्द लेता था । कण्ड से झरने बाले अमृत का आहार करता था । तीर्थंकरों के पञ्च कल्याणक उत्साह से मनाता था, जिसके पुण्य फल में स्त्र की प्राय समाप्त होने पर मैं भरत क्षेत्र में छत्राकार नगर के महाराजा नन्दिवर्धन की वीरवती नाम की रानी से नन्द नाम का राजकुमार हमा । धर्म में अधिक रवि होने के कारण धावकों के बारह प्रतों को प्रकटी तरह पालन करता था। धी प्रोष्टिल नाम के मुनि के उपदेश से वैराग्य या गया तो राजगाट को लात मार कर उनके निकट दीक्षा लेकर जेन सा हो गया । और केवली भगवान के निकट सोलह कारण भावनाए मन, वचन काय से भाकर तीथकर नामका गहापुण्य प्रकृति का वध किया। प्रायु के अन्त में पाराधनापूर्षक शरीर त्याग कर, उत्तम तप के प्रभाव से अच्युत नाम के सोलहवें स्वर्ग के पुष्पोत्तर विमान में देवों के देव इन्द्र हुआ।