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इकस उनसठ सकल बिमान, श्रेणीबद्ध प्रकीर्णक जान । तिनै असंख्य संख्य विस्तार, सबै सुक्खसागर अधिकार ।।७२।। दश सहस्र सामानिक देव, तुम समान दोसं कर सेव । उतम सुर तंतोस हजार, सुत समान बर्त सुखकार ।।७३|| सुर चालीस सहस परवान, ते तुम तन रक्षक गुण खान । या समान सब देव उतंग, कहै अढ़ाई से निरभंग ।।७४।। देव पंचसै परम प्रवीन, तुम प्राज्ञा में तत्पर लोन लोकपाल चारों चतुरंग, पाले लोक धरा सरवंग ॥७॥ दश दिकपाल नाथ पग धरै, दहि दिशा सब उज्वल करै । इनै आदि सुर संवें घने, अब सुभेद सुन देविन तन ।।७६।। गणदेवी बत्तीस बखान, नाटक सुक्ख करें गुन खान । अष्ट महादेवी गुणरूप, प्रेम प्रादेश राग रस कूप ।।७७॥ एक एक प्रति है परवान, कहीं अठाईस शुभठान । तीन ज्ञान मण्डित मन रंग, ऋद्धि वित्रिया युत सरवंग ।।७।। बल्लभिका देवी सुन थान, है वैषठ इनको परवान । तुम चित्त हरें करें पद सेव, महतो रूप सम्पदा एव ||७|| कही पिण्डता देवी शाख, हैं सहस्र इकहत्तर भाख । अरु दस लाख सहस चौवीस, दिव्य जोषिता रूप गरीस ||८०॥ पाववान हैं त्रिविध हि देव, गीत नृत्य कर तुम पद सेव । प्रथम पचीस दुनी पंचास, तृतीय परिधि शत ज्ञान प्रकाश सब में यह बर्धना शचो, बसुधरा नामांकित खची । जिनवर पूजा में लवलीन, क्षायिक समकित बहुभव होन ।।२।। ललित वचन है लीला बन्ध, सुभग सूलच्छन सहज सुगन्ध । सोलरूप लावण्य हि लीन, हाव भाव रस कला प्रदान ।।८३॥ सब देबिन को प्रायु प्रमान, पचपन पल्य कही भगवान । विनरौ होय बहुत समुदाय, ज्यों समुद्र उठि लहर विलाय ।।८४५
उन सोलह भावनाओं में पहली भावनामें उन्होंने दर्शन विशुद्धि के लिये शंकादि पच्चीस दोषों को त्यागकर निःशंकादि पाठ गुणों को स्वीकार किया। जिनेन्द्र भगवान के कथनानुसार सूक्ष्म तत्वों के विचार में प्रमाणिक पुरुष से शंकाकी निवृत्ति कर 'निशंकित' अंग का पालन करना प्रारम्भ किया । वे तपसे इस लोक और परलोक के सुखों को परित्याग पूर्वक, उसे नरक का कारण समझ निःकांक्षित' अंग को धारण कर लिया। रत्नत्रयादि गुणों को धारण करने वाले योगियों के शरीर पर मैल तथा रोग देखकर उससे ग्लानि नहीं उत्पन्न होना ऐसा वे निवि चिकित्सा' अंग का पालन करने लगे। मुनि ने देव गुरु शास्त्रको धर्म रूपो ज्ञान भेद से परीक्षा कर मूढ़ता का त्याग पूर्वक प्रमुढत्व अंग को स्वीकार किया।
वह जिन शासन में अज्ञानी असमर्थ पुरुषों के सम्बन्ध से प्राप्त हुए दोषों को छिपाना ऐसे उपगृहन गुणको पालने लगा। दर्शन तप चरित्र से युक्त जीवोंको उपदेशादि द्वारा दर्शनादि गुणों में स्थिर करने वाला ऐसे स्थितिकरण अङ्ग का आचरण करने लगा। वह साधर्मों भाइयों से गो-बछड़े की भांति ऐसे 'वात्सल्य गुण' का पालन करने लगा। उसने मिथ्यात्व से दूर रह कर जैनधर्म के महात्म्य को प्रकाश करने वाला प्रभावना का पालन प्रारम्भ किया।
उसने संयमी राजा की भाँति अष्ट गुणों से सम्यग्दर्शनको पुष्ट किया । सम्यग्दर्शन के प्रभावसे उसने कर्म-रूपी शत्रुओंको नष्ट कर दिया। देव, लोक और गुरु तीनों मूढ़ता को त्याग किया। इस मुनि ने जगतको अनित्य समझ कर अष्ट मदों को छोड़ा। मिथ्या, दर्शन, ज्ञान, चरित्र और इनके धारक छः प्रकार के अनायतनों को भी सर्वथा त्याग दिया ।
मनि ने निःशंकादि मुणों के विपरीत शंकादि पाठ दोषों का त्याग किया । वह अपने ज्ञानरूपी जलसे सम्यक्त्व के पच्चीस मलों को धोकर उसे निर्मल कर दर्शन विशद्धि भावना का पालन करने लगा। उस मनि ने मंवेग, वराम्य अनुकंपा आदि गुणों से रहित होकर तीर्थकर की उपाधि का प्रथम सोपान-दर्शन विशुद्धि पर प्रारोहण किया।
वह दर्शन, ज्ञान, चारित्र, व्यवहार विनय एवं ज्ञानादि गुणों को धारण करने वालोंका विनय, मन, वचन, काय वी शुद्धता पूर्वक करने लगा । वह सदा शास्त्रोंके अध्ययन में लीन रहता था । साथ ही उसके यहां अनेक शिष्य पढ़ने के लिये पाया करते थे। उसे देह-भोग और संसार के प्रति बड़ी अनास्था हुई। वह इनसे बड़ा भयभीत हमा। उस नन्द नाम के योगी ने मुनियों को ज्ञानदान, अन्यान्य जीवों को अभयदान और समग्र जीवों को सुख देने वाला धर्मोपदेश प्रारम्भ किया।
वह मुनि दुष्ट कर्मरूपी शत्रुओं को विनष्ट करने के उद्देश्य से निर्दोष तप करने लगा। वह सदा रोग से पीड़ित और समाधिमरण करने वाले असमर्थ साधनों की सेवा में संलग्न रहने लगा। उन्हें वह धर्मोपदेश भी किया करता था। वह मोक्ष के लिये ममियों की बयावृत्य करने लगा। मुनिने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्रदान करने वाली अर्हत भगवानकी महत पूजा प्रारम्भ